चिड़िया ने दिया क़ीमती सबक़
किसान ने एक दिन छोटी-सी चिड़िया पकड़ ली। वह इतनी छोटी थी कि किसान की एक मुट्ठी में दो चिड़ियां समा सकती थीं। किसान कहने लगा कि वह उसे पकाकर खा जाएगा। चिड़िया बोली, ‘कृपा करके मुझे छोड़ दो। वैसे भी मैं इतनी छोटी हूं कि तुम्हारे एक कौर के बराबर भी नहीं होऊंगी।’
किसान ने जवाब दिया, ‘लेकिन तुम्हारा मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। और हां, मैंने कहावत सुनी है कि कुछ नहीं से कुछ भी होना बेहतर है।’ उसकी बात सुनकर चिड़िया बोली, ‘अगर मैं तुम्हें ऐसा मोती देने का वादा करूं, जो शुतुरमुर्ग के अंडे से भी बड़ा हो, तो क्या तुम मुझे आÊाद कर दोगे?’ उसकी बात सुनकर किसान बहुत ख़ुश हो गया और तत्काल उसने मुट्ठी खोलकर उसे उड़ा दिया।
चिड़िया आÊाद होते ही कुछ दूर पर एक पेड़ की थोड़ी ऊंची डाल पर जा बैठी, जहां तक किसान का हाथ नहीं पहुंच पाता था। किसान ने उसे बैठा देखकर बड़ी बेसब्री से कहा, ‘जाओ, जल्दी जाओ, मेरे लिए वह मोती लेकर आओ।’ चिड़िया हंसकर बोली, ‘वह मोती तो मुझसे भी बड़ा है, मैं उसे कैसे ला सकती हूं?’ किसान ने ग़ुस्से और खीझ से कहा, ‘तुम्हें लाना ही पड़ेगा, तुमने वादा किया है।’
चिड़िया वहीं बैठी रही। उसने जवाब दिया, ‘मैंने तुमसे कोई वादा नहीं किया था। मैंने सिर्फ़ यही कहा था कि अगर मैं ऐसा वादा करूं, तो क्या तुम मुझे छोड़ दोगे। और इतना सुनते ही तुम लालच में अंधे हो गए थे। ’ उसकी बात सुनकर किसान हाथ मलने लगा। चिड़िया बोली, ‘लेकिन दुखी मत हो, मैंने आज तुम्हें वह पाठ पढ़ाया है, जो ऐसे हÊार मोतियों से Êयादा क़ीमती है। हमेशा कुछ भी करने से पहले सोच-विचार करो।’
भगवान से कैसे बात करें हम..
दादाजी बैठे-बैठे अख़बार पढ़ रहे थे। कमरे में उनकी पांच वर्षीय पोती भगवान के सामने हाथ जोड़े बैठी कुछ बुदबुदा रही थी। नन्ही पोती को इस तरह प्रार्थना करते देख दादाजी को सुखद आश्चर्य हुआ। सो, वे ध्यान से सुनने लगे कि पोती आख़िर भगवान से क्या कह रही है। लेकिन काफ़ी ध्यान लगाने पर भी उन्हें कुछ समझ में न आया।
उनकी पोती शब्द या वाक्य बोलने की बजाय क, ख, ग, घ, अ, आ, इ, ई, उ ऊ जैसे अक्षर दुहरा रही थी। उन्होंने पूछा, ‘बिटिया, तुम क्या कर रही हो?’ पोती बोली, ‘मैं प्रार्थना कर रही हूं दादाजी। मुझे सटीक शब्द नहीं सूझ रहे हैं, इसलिए मैं अक्षर बोल रही हूं। भगवान उन अक्षरों को चुनकर सटीक शब्द बना लेगा, क्योंकि वह जानता है कि मैं क्या चाहती हूं।’
कहीं, किसी और जगह, एक और दादाजी अपने पोते की प्रार्थना सुन रहे थे। यह पोता भी बहुत छोटा था। इतना छोटा कि उसके पास बुद्धि तो थी, पर स्वार्थ न था। वह भगवान की शक्ति के बारे में तो जानता था, पर यह नहीं जानता था कि भगवान से डरना चाहिए या नहीं।
दादा ने सुना, पोता कह रहा था, ‘हे भगवान, मेरे पापा की रक्षा करना और मेरी मम्मी की भी और मेरी बहन की और मेरे भाई की और मेरे दादा-दादी की भी रक्षा करना। तू मेरे सभी दोस्तों को अच्छे से रखना और पड़ोस वाले अंकल-आंटी को भी।
आया और उसके छोटू की देखभाल की जिम्मेदारी भी तेरी है। और हां, तुझे मेरे कुत्ते की भी अच्छी तरह देखभाल करनी है। और हां भगवान, ध्यान से अपनी भी देखभाल करते रहना। अगर तुझे कुछ हो गया, तो हम सब बहुत मुसीबत में फंस जाएंगे!’
भिखारी का धर्म-संकट
एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज तो मेरी झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। वह कुछ दूर ही चला था कि अचानक सामने से उसे राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी ख़ुश हो गया।
उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारी ग़रीबी दूर हो जाएगी। जैसे ही राजा भिखारी के निकट आया, उसने अपना रथ रुकवाया। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले, अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे।
ख़ैर, भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला और जैसे-तैसे कर उसने जौ के दो दाने निकाले और राजा की चादर पर डाल दिए। राजा चला गया। भिखारी मन-मसोसकर आगे चल दिया। उस दिन उसे और दिनों से ज्यादा भीख मिली थी, फिर भी उसे ख़ुशी नहीं हो रही थी।
दरअसल, उसे राजा को दो दाने भीख देने का मलाल था। बहरहाल, शाम को घर आकर जब उसने झोली पलटी, तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसके झोले में दो दाने सोने के हो गए थे। वह समझ गया कि यह दान की महिमा के कारण हुआ था। बहरहाल, उसे बेहद पछतावा हुआ कि काश! राजा को और जौ दान करता।
सबक अवसर ऐसे ही लुके-छिपे ढंग से सामने आते हैं। समय रहते व्यक्ति उन्हें पहचान नहीं पाता और बाद में पछताता है।
बच्चे की बात में ख़ुशी का राज
एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।
बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’\
बदले के चक्कर में डूबी लुटिया
बहुत समय पहले की बात है। उन दिनों इंसान अकेला रहता था। उसके पास गाय-बैल, घोड़ा, कुत्ता जैसे जानवर नहीं थे। सभी पशु अलग-अलग रहते थे और उनका दर्जा इंसान से जरा भी कम नहीं था। इंसान और बाक़ी जानवर आपस में बात करते, एक-दूसरे से कभी दोस्ती कर लेते और कभी लड़ भी पड़ते। ऐसे ही एक बार बैल और घोड़े में झगड़ा हो गया। दोनों पहले अच्छे दोस्त थे और झगड़ा बहुत मामूली बात पर हुआ था, लेकिन दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे। बैल और घोड़ा इसी फ़िराक़ में रहते थे कि कैसे अगले का नुक़सान किया जा सके।
सो, एक दिन घोड़ा इंसान के पास पहुंच गया। उसे पता था कि इंसान के पास बहुत दिमाग़ है और उसे दोनों हाथों और पैरों का कई तरह से इस्तेमाल कर सकने में महारत हासिल है। बैल से दुश्मनी के चक्कर में वह आदमी के पास मदद मांगने पहुंच गया था।इंसान ने बड़े ग़ौर से उसकी बातें सुनीं। लगे हाथ बैल की बुराई भी कर दी। इससे घोड़ा बड़ा ख़ुश हुआ। उसने इंसान का भरोसा जीतने के लिए बताया कि बैल के पास काम करने के लिए बहुत ऊर्जा है, वह खेती समेत कई कामों में उसका मददगार हो सकता है।
इंसान ने कहा, ‘मैं बैल को काबू में लेकर उससे ग़ुलामों की तरह काम करवाऊंगा, लेकिन इसके लिए मुझे ऐसे साथी की जरूरत है, जो तेजी से दौड़ सके और मुझे बिठाकर बैल के पीछे दौड़ लगा सके।’ घोड़ा बोला, ‘मैं हूं न, तुम मेरे ऊपर बैठ जाना।’ आदमी झट से उसके ऊपर बैठ गया और उसकी नाक में नकेल कस दी। फिर उसने बैल को भी काबू में कर लिया। तब से बैल और घोड़ा, दोनों इंसान के सेवक बन गए।
सेवा की मिली मेवा लेकिन..
एक गिलहरी शेर की सेवा में लगी थी। वह थी तो छोटी-सी, पर अपनी पूरी क्षमता से शेर के काम करती। हरदम लगी रहती। शेर भी उसकी सेवा से ख़ुश था। उसने गिलहरी को इनाम में दस बोरी अखरोट देने का वादा किया। गिलहरी बड़ी ख़ुश हुई। उसे लगा कि उसकी मेहनत सार्थक हो गई। वह सपने देखने लगी कि दस बोरी अखरोट मिलने के बाद उसे काम करने की Êारूरत नहीं रहेगी। उसके बाद तो उसका सारा जीवन सुख और आराम से गुÊारेगा। लेकिन आज का सच यह था कि शेर ने वादा किया था, उसने अखरोट भरी बोरियां दी नहीं थीं।
फिर भी आस पक्की थी, क्योंकि यह शेर का वादा था, जो पूरा होना ही था। सो, गिलहरी दूने जोश से उसकी सेवा में जुट गई। वह काम करते-करते अपने पुराने साथियों को देखती, जो एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकते रहते, कभी Êामीन पर उतर सरपट दौड़ पड़ते। गिलहरी को एक पल के लिए ख़ुद पर अफ़सोस होता, पर अगले ही पल उसके मन में आता कि ये लोग भले ही आज मौज-मस्ती कर रहे हैं, लेकिन जब मुझे अखरोटों के रूप में अपनी सेवा का पुरस्कार मिल जाएगा, मैं पूरी Êिांदगी मौज करूंगी।
इस तरह वह नन्ही-सी गिलहरी शेर की सेवा में जुटी रही। शेर कभी उससे ख़ुश हो जाता, कभी झिड़क भी देता। उसे एक अन्य जंगल में रहने वाले शेर की सेवा के लिए भी भेजा गया। हर मौक़े पर वह यही सोचती रही कि एक बार अखरोट मिल जाएं, बस! आख़िर गिलहरी को रिटायर कर दिया गया। और सचमुच, शेर ने उसे इनाम में दस बोरी अखरोट भी दिए। पर गिलहरी को ख़ुशी नहीं हुई। क्यों? क्योंकि उसके पूरे दांत झड़ चुके थे। अब अखरोट उसके किस काम के?