Monday, May 2, 2011

फुरसतनामा

नरक यात्रा का दुख

दोबार अपने राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता सज्जन कुमार अभी कुछ महीने पहले केंद्र में कैबिनेट स्तर के मंत्री बने थे। हर तरफ से खजाने का मुंह उनकी तरफ खुल गया था। उनके स्विस बैंकों के लेखों में दनादन माया बढ़ती जा रही थी। राजधानी के गलियारों में उनका रौब-रुतबा बढ़ गया था। जहां उनके इतने दोस्त बने, वहां दुश्मनों की भी कमी नहीं थी। उन्हें एक तरफ करके खुद आगे आने के लिए कई लोग लालायित थे।
चाल चलने वाले आखिरकार कामयाब हो ही गए। सज्जन कुमार पर कई जानलेवा हमले हुए, मगर हर बार वह चमत्कारिक रूप से बच निकलते। बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाती। मौत उनके आसपास मंडराती रही।
एक दिन नेताजी अपने हल्के से दल-बल सहित लौट रहे थे कि कुछ आत्मघाती लोगों की कारें उनके काफिलें से भिड़ गईं। उसी सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनका शरीर तो खैर देश की अमानत था, सो हर तरफ शोक मनाया जा रहा था। नेता जी की आत्मा को देवदूतों ने देवनगरी के बाहर के गेट पर ला पटका था।
द्वार पर एक सीनियर देव अधिकारी ने नेताजी का स्वागत करते हुए कहा, ‘सर, माफ कीजिएगा, धरती पर आपके रुतबे के अनुरूप यहां आपका स्वागत तो नहीं किया जा सकेगा। मगर आप जैसे वीआईपी लोगों के लिए हमारे इस लोक के संविधान में एक विशेष प्रावधान है। आप जैसे समाजसेवियों को मृत्यु के बाद स्वर्गलोक में आने पर एक विकल्प दिया जाता है।’

नेताजी की बांछें खिल गईं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘जल्दी बताएं श्रीमान, मैं तीन दिनों से भूखा-प्यासा हूं। जल्दी से स्वर्गलोग के द्वार खुलवाएं। नृत्य और मदिरा का इंतजाम करवाएं और बताएं कि यहां मुझे क्या-क्या विशेषाधिकार मिलेंगे।’
देव अधिकारी ने विनम्रता से कहा, ‘सर, आप तो धरती पर साक्षात राजा जैसा जीवन बिताकर आए हैं। यहां भी आपको राजसी सत्कार दिया जाएगा। आपको आपकी मर्जी से ही स्वर्ग या नरक की अलॉटमेंट दी जाएगी। यह आपकी खुशी पर निर्भर करता है कि आपको क्या पसंद है। आपको एक रात नरक में गुजारनी है और फिर अगला एक दिन स्वर्ग में। फिर उसके बाद आप बता देना कि पक्के तौर पर आप कहां रहना चाहेंगे।’

नेताजी तपाक से बोले, ‘सच में क्या ऐसा मुमकिन है। मैंने तो सुना है कि कर्मो के अनुसार ही जन्नत या दोजख के दरवाजे खुलते हैं, मगर जनाब आपकी बातों ने तो मुझे निहाल कर दिया। अगर आप मेरी मानें तो मैंने अभी ही फैसला ले लिया है। मुझे स्वर्ग में भेज दें।’
अधिकारी ने थोड़ा सख्त लहजे में कहा, ‘आई एक सॉरी, सर। यूं हड़बड़ी ठीक नहीं और फिर यहां के कानून का पालन करना जरूरी है। आपको पहले एक दिन नरक में रहना होगा और फिर अगले दिन स्वर्ग में रात बितानी होगी। उसके बाद आपको सोचने-विचारने का समय दिया जाएगा और फिर आपकी मर्जी के मुताबिक आपका निवास स्थान आवंटित कर दिया जाएगा। यह औपचारिकता निभाहनी बहुत जरूरी है, क्योंकि चित्रगुप्त महोदय एक बार निर्णय हो जाने के बाद फिर किसी की शिकायत पर गौर नहीं करते। देखने में आया है कि लोगों के मन बहुत विचलित होते हैं। बहुधा लोग स्वर्ग चुन लेने के बाद अर्जी लगा देते हैं कि उन्हें नरक में स्थान चाहिए। ऐसे प्रार्थना पत्र नष्ट कर दिए जाते हैं, उन पर कोई गौर नहीं किया जाता। मैं नहीं चाहता कि आपको अपने फैसले पर क्षोभ हो।’

देवदूत ने थोड़ी सांस लेकर आगे कहा, ‘सर आपको हैरानी हो रही है, मगर यह सत्य है। धरती पर पता नहीं किन खब्ती लोगों ने अफवाहें फैला दी हैं कि अच्छे कर्मो के कारण स्वर्ग मिलता है और बुरे कामों के कारण नरक की यातना भोगनी पड़ती है। ऐसी बात नहीं है सर। नरक और स्वर्ग व्यक्ति की रुचि, मानसिकता और चुनाव पर आधारित है। कोई जबरदस्ती वाली बात नहीं है यहां। सच मानें तो यहां असली जनतंत्र है। बस एक बात है कि एक बार चुन लेने के बाद आदमी अपना विकल्प नहीं बदल सकता।’
नेताजी अजीब-सी मनस्थिति में पहुंच गए थे। ऐसा कुछ उनके लिए समझ से बिल्कुल परे था। धरती के हर कानून को वह अपने या अपने लोगों के पक्ष में कर लेते थे, मगर यहां उनके साथ क्या घटने वाला है, यह सोचकर उनका कलेजा कांप उठा। हर तरफ अनिश्चय व भय की स्थिति थी।
सज्जन कुमार को स्वर्ग या नरक में से एक चुनने का अधिकार मिल तो गया, मगर वह इस लोक की वास्तविक रणनति समझ नहीं पा रहे थे। अगर किसी को उसकी मर्जी के मुताबिक जगह मिल जाएगी तो फिर स्वर्ग और नरक को रसातल की संज्ञा दी गई है। काफी देर नीचे उतरने के बाद नरक का गेट उनके सामने था। नरक का स्वागती गेट देखकर उनका मन खिल उठा। वह सोचने लगे कि अगर नरक ऐसा है तो स्वर्ग तो न जाने कितना आकर्षक और लुभावना होगा।
सामने का दृश्य देखकर नेताजी गदगद हो गए। एक बड़ा-सा हरा-भरा गोल्फ का मैदान था। थोड़ी ही दूरी पर एक सुंदर क्लब हाउस था। उसके पास खड़े नेताजी के कई जिगरी दोस्त नजर आ रहे थे, जिनके साथ नेता जी ने राजनीति की दलदल में गैर-कानूनी ढंग से करोड़ों रुपए कमाए थे। हरेक व्यक्ति बेहद खुश नजर आ रहा था। आसपास चुलबुली शोख और बिंदास महिलाएं भी इतरा रही थीं। सारा कुछ उनकी जवानी के दिनों के समान ही माहौल था, जब वह क्लबों में रात-रात भर मौज-मस्ती करते रहते थे।
उन सभी लोगों ने बड़ी गर्मजोशी से नेताजी को गले लगाया व उनकी शान में कसीदे कहे। फिर वे सब लोग मिलकर आम आदमी के खर्च पर की गई ऐयाशियों के किस्से सुना-सुनाकर देर तक कहकहे लगाते रहे। क्लब में कई प्रकार के मनोरंजक खेल हुए, डांस किए गए, लजीज व्यंजन और उम्दा शराब और कबाब परोसा गया।

 

नेताजी तो यह सब पाकर मस्त ही हो गए। कहां तो उन्हें अपनी मौत का गम खाए जा रहा था। अभी-अभी तो दिल्ली की सुनहरी गद्दी पर काबिज हुए थे। अभी तो विदेशों में ऐशो-इशरत का रास्ता खुला था और तभी मौत ने आ घेरा था। मगर नरक में आज का यह दिलकश मंजर देखकर सज्जन कुमार तृप्त हो गए। असमय मरने का सारा गम जाता रहा। वहां शैतान भी आया, जो दिखने में बहुत फिराकदिल, खुशमिजाज और दोस्ताना था। उसने भी मस्त मन से नृत्य किया और कई प्रकार के लतीफे सुनाए।

इतने सब में पता ही नहीं कब एक दिन गुजर गया। देवदूत नेताजी को लेने आ पहुंचा। सभी लोगों ने नेताजी को भरे गले से गुड बाय कहा। देवदूत नेताजी को फिर उसी लिफ़्ट में लेकर चला।

काफी देर तक बहुत ऊपर जाने के बाद स्वर्ग के मुख्यद्वार के सामने देवदूत ने नेताजी को स्वर्ग में एक दिन के लिए जाने को कहा। स्वर्ग यूं तो बहुत ही बढ़िया जगह थी, मगर नेताजी के स्वभाव और रुचि के अनुकूल वहां कुछ भी नहीं था। सबसे ज्यादा खलने वाली बात तो यह थी कि कोई जाना-पहचाना व्यक्ति वहां नहीं था। सज्जन कुमार आज तक भीड़ में घिरे रहते तभी उन्हें अपना जीवन सार्थक लगता था। स्वर्ग के अनजान माहौल में एक पल में ही उनका दम घुटने लगा था।

स्वर्ग में एक अपूर्व नीरस शांति थी। नेताजी को सारा मामला बहुत बोर लगा। बादलों पर इतराते प्रसन्न मुद्रा में ध्यान पर बैठे लोगों को देख-देखकर बहुत ही कष्टपूर्ण ढंग से नेताजी का वह एक दिन बीता।

देवदूत के साथ नेताजी वापिस मुख्य कार्यालय में लौटे। एक फॉर्म पर उन्हें अपना विकल्प चुनने के लिए कहा गया। नेताजी ने कूटनीति से यह कहते हुए नरक में जाने की इच्छा व्यक्त की, ‘सोचकर तो यही चला था कि स्वर्ग में रहकर ऐश करूंगा, मगर नरक में मेरे साथी भी हैं और मस्ती का माहौल भी है। स्वर्ग वैसे तो बहुत अच्छी जगह है, मगर मुझे लगता है कि मैं नरक में ही रहकर खुश रह सकूंगा। कृपया मुझे नरक में स्थान दे दिया जाए।’ सज्जन कुमार की अर्जी मंजूर कर ली गई। नरक मिलने की खुशी में वह झूम उठे।
उसी लिफ्ट से देवदूत नेताजी को नरक के द्वार तक छोड़ गया। जब नेताजी नरक से गेट से अंदर दाखिल हुए तो वहां का सारा नजारा बहुत बदला हुआ था। कहीं कोई गोल्फ का मैदान नहीं था, न ही क्लब और न वे रंगीनियां। हर तरफ उजाड़ था, गंदगी थी, लोग गंदगी को बोरों में भर रहे थे और ऊपर से कचरा व गंदगी गिर रही थी। लोगों ने गंदे-फटे कपड़े पहने हुए थे।
तभी शैतान ने आकर नेताजी के कंधे पर हाथ रखा। नेताजी ने बौखलाकर कहा, ‘माफ करना जनाब, मुझे समझ नहीं आ रहा है कि माजरा क्या है। कल जब मैं यहां आया था तब यहां गोल्फ क्लब था, हमने खूब मस्ती की थी, शराब और कबाब की पार्टी थी, मगर आज यहां सब कुछ दरिद्रतापूर्ण है। मेरे सारे दोस्तों ने फटे कपड़े पहने हैं और वे कितने घृणित लग रहे हैं। बात क्या है?’
नरक के मुखिया शैतान ने अट्टहास करते हुए कहा, ‘बंधु! धरती पर तुम भी तो यही सब करते रहते हो। चुनाव नजदीक आने पर जनता को कैसे उल्लू बनाते हो। यहां नरक में लोगों की भीड़ जुटाने के लिए हमें भी यह सब करना पड़ता है। कल हम लोग नरक के पक्ष में तुम्हारा वोट लेने के लिए एक प्रकार का चुनाव प्रचार कर रहे थे। उसी का नतीजा है कि तुम जैसे मशहूर नेता ने हमें सेवा का मौका दिया। कल का सारा तामझाम तुम्हें रिझाने के लिए था।’
नेता सज्जन कुमार को पहली बार महसूस हुआ कि धरती पर जब वे चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को सब्जबाग दिखाते थे और चुनावों के बाद उन्हें छलते थे, तब जनता को भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगता होगा।


एक बेमेल इंसान

एक ऐसा देश था, जिसके सारे निवासी चोर थे।

रात में नकली चाभियों के गुच्छे और लालटेन के साथ सभी लोग अपने-अपने घर से निकलते और किसी पड़ोसी के घर में चोरी कर लेते। सुबह जब माल-मत्ते के साथ वे वापस आते तो पाते कि उनका भी घर लुट चुका है।

तो इस तरह हर शख्स खुशी-खुशी एक-दूसरे के साथ रह रहा था। किसी का कोई नुकसान नहीं होता था क्योंकि हर इंसान दूसरे के घर चोरी करता था, और वह दूसरा किसी तीसरे के घर और यह सिलसिला चलता रहता था उस आखिरी शख्स तक जो कि पहले इंसान के घर सेंध मारता था।

उस देश के व्यापार में अनिवार्य रूप से खरीदने और बेचने वाले दोनों ही पक्षों की धोखाधड़ी शामिल होती थी। सरकार अपराधियों का एक संगठन थी, जो अपने नागरिकों से हड़पने में लगी रहती थी। और नागरिकों की रुचि केवल इसी बात में रहती थी कि कैसे सरकार को चूना लगाया जाए। इस तरह जिंदगी सहज गति से चल रही थी, न तो कोई अमीर था न तो कोई गरीब।

एक दिन, यह तो हमें नहीं पता कि कैसे, कुछ ऐसा हुआ कि उस जगह पर एक ईमानदार आदमी रहने के लिए आ गया। रात में बोरा और लालटेन लेकर बाहर निकलने की बजाए वह घर में ही रुका रहा और सिगरेट पीते हुए उपन्यास पढ़ता रहा।

चोर आए और बत्ती जलती देखकर अंदर नहीं घुसे।

ऐसा कुछ दिन चलता रहा : फिर उन्होंने उसे खुशी-खुशी यह समझाया कि भले ही वह बिना कुछ किए ही गुजर करना चाहता हो, लेकिन दूसरों को कुछ करने से रोकने का कोई तुक नहीं है। उसके हर रात घर पर बिताने का मतलब यह है कि अगले दिन किसी एक परिवार के पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा।

ईमानदार आदमी बमुश्किल ही इस तर्क पर कोई ऐतराज कर सकता था। वह उन्हीं की तरह शाम को बाहर निकलने और फिर अगली सुबह घर वापस आने के लिए राजी हो गया। लेकिन वह चोरी नहीं करता था। वह ईमानदार था, और इसके लिए आप उसका कुछ कर भी नहीं सकते थे। वह पुल तक जाता और नीचे पानी को बहता हुआ देखा करता। सुबह जब वह घर लौटता तो पाता कि वह लुट चुका है।

हफ्ते भर के भीतर ईमानदार आदमी ने पाया कि उसके पास एक भी पैसा नहीं बचा है। उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं है और उसका घर भी खाली हो चुका है। लेकिन यह कोई खास समस्या न थी, क्योंकि यह तो उसी की गलती थी। असल समस्या तो यह थी कि उसके इस बर्ताव से बाकी सारी चीजें गड़बड़ा गई थीं। क्योंकि उसने दूसरों को तो अपना सारा माल-मत्ता चुरा लेने दिया था, जबकि उसने किसी का कुछ नहीं चुराया था। इसलिए हमेशा कोई न कोई ऐसा शख्स होता था, जो सुबह घर लौटने पर पाता कि उसका घर सुरक्षित है : वह घर जिसमें उस ईमानदार आदमी को चोरी करनी चाहिए थी।

कुछ समय के बाद उन लोगों ने, जिनका घर सुरक्षित रह गया था, अपने आपको दूसरों के मुकाबले कुछ अमीर पाया और उन्हें यह लगा कि अब उन्हें चोरी करने की जरूरत नहीं रह गई है।

मामले की गंभीरता और अधिक कुछ यूं बढ़ी कि जो लोग ईमानदार आदमी के घर में चोरी करने आते, उसे हमेशा खाली ही पाते। इस तरह वे गरीब हो गए।

इस बीच उन लोगों को, जो अमीर हो गए थे, ईमानदार आदमी की ही तरह रात में पुल पर जाने और नीचे बहते हुए पानी को देखने की आदत पड़ गई। इससे गड़बड़ी और बढ़ गई क्योंकि इसका मतलब यही था कि बहुत-से और लोग अमीर हो गए तथा बहुत-से और लोग गरीब भी हो गए।

अब अमीरों को लगा कि अगर वे हर रात पुल पर जाना जारी रखेंगे तो वे जल्दी ही गरीब हो जाएंगे। तो उन लोगों को सूझा : ‘चलो कुछ गरीबों को पैसे पर रख लिया जाए जो हमारे लिए चोरियां किया करें’। उन लोगों ने समझौते किए, तनख्वाहें और कमीशन तय किया : अब भी थे तो वे चोर ही, इसलिए अब भी उन्होंने एक-दूसरे को ठगने की कोशिश की। लेकिन, जैसा कि होता है, अमीर और भी अमीर होते गए जबकि गरीब और भी गरीब।

कुछ अमीर लोग इतने अमीर हो गए कि उन्हें अमीर बने रहने के लिए चोरी करने या दूसरों से कराने की जरूरत नहीं रह गई। लेकिन अगर वे चुराना बंद कर देते तो वे गरीब हो जाते क्योंकि गरीब तो उनसे चुराते ही रहते थे। इसलिए उन लोगों ने गरीबों में भी सबसे गरीब को अपनी जायदाद को दूसरे गरीबों से बचाने के लिए पैसे देकर रखना शुरू कर दिया, और इसका मतलब था पुलिस बल और कैदखानों की स्थापना।

तो हुआ यह कि ईमानदार आदमी के प्रगट होने के कुछ ही साल बाद लोगों ने चोरी करने या लुट जाने के बारे में बातें करना बंद कर दिया। अब वे सिर्फ अमीर और गरीब की बात किया करते थे; लेकिन अब भी थे वे चोर ही।

इकलौता ईमानदार आदमी वही शुरुआत वाला ही था, और वह थोड़े समय बाद ही भूख से मर गया था।











खोए हुए

आखिर वे अपना घर छोड़कर क्यों जाएंगे कहीं? यह घर उनका है। इसकी एक-एक ईंट स्वयं उन्होंने अपने हाथों से रखी है। तिनका-तिनका जोड़कर जो घर बनाते हैं, वे अपना घर छोड़कर कहीं जा सकते हैं?

फिर क्या बात हुई होगी?

घर में कोई कलह?

कोई अशांति?

कोई मतभेद?

फिर कोई कारण तो रहा ही होगा। नहीं तो क्या हवा में अंतरध्यान हो गए? जमीन लील गई उन्हें? वे एकाएक कहां लापता हो गए?

पहले कभी कहते थे - यह घर अब छोटा पड़ गया है लीला। जब बनाया था, तब कितना बड़ा लगता था। लगता था -कैसे रहेंगे इत्ते बड़े घर में..?

इस पर वे कहतीं - मैं घर में झाडू-बुहारी ही लगाती रहूंगी दिन भर या बच्चों की देख-रेख भी करूंगी?

तब हंसी-हंसी में उन्होंने भी उसी लहजे से कहा था - तुम्हारी इजाजत हो तो इसका भी इंतजाम हो जाएगा।

उनका शरारत भरा इशारा समझकर तब वह कितना बिफरी थीं, कितना?

वृद्धा पत्नी के मन में न जाने आज क्या-क्या आ रहा था? एक कोने में बैठी वे चुपचाप रो रही थीं। छोटे-छोटे बच्चों की समझ में नहीं आ पा रहा था कि इतनी बड़ी होकर भी दादी बच्चों की तरह क्यों रो रही हैं। निरंतर रोए जा रही हैं।

दादाजी हर रोज सुबह मुझे अपने साथ घुमाने ले जाते थे। कभी-कभी वे मुझसे रेस लगा लिया करते और अक्सर हार जाते थे। नन्हा साहिल कहता मैं ताली पीटता हुआ हंसता तो मेरे साथ-साथ मेरी तरह वे भी हंसने लगते थे। अरे शैतान। तू बड़ा पाजी है। मुझसे ज्यादा चलने लगा है न अब।

वे कहते तो मैं समझ न पाता कि दादा जी दूसरों को जिताने के लिए क्यों स्वयं हार स्वीकार कर लेते थे।

पास ही खड़ा भगत बोला - एक दिन मैंने रूठकर पूछा, दादाजी, आपने मेरा नाम ऐसा क्यों रखा? लोग तो न जाने कैसे-कैसे सुंदर नाम रख रहे हैं - एक दम मॉडर्न - प्रियांक, प्रस्तुत, प्रतुल। आपने सदियों पुराना नाम छांटा - भगत सिंह। बतलाइए, यह भी कोई नाम है?

दादाजी मेरी बातें सुनकर एकाएक सन्न-से रह गए। उनकी समझ में शायद भली-भांति नहीं आ पा रहा था कि मैं यह क्या कह रहा हूं। इसलिए कुछ सोचते हुए बोले - बेटे, तू अभी नहीं, कभी बड़ा हो जाएगा तो समझेगा..।

बहुत दिनों बाद जब एक बार मौसाजी की उपस्थिति में फिर बात छिड़ी तो बड़े उदास मन से बोले - हरविलास, यह ठीक कह रहा था। मुझे इसका नाम भगत सिंह और इससे बड़े का चंद्रशेखर नहीं रखना चाहिए था। ये बिचारे इस काबिल कहां। नाम का भी तो बोझ होता है न। उतना बड़ा बोझ उठाने की सामथ्र्य इनके कमजोर कंधों में कहां?

कहते-कहते दादाजी की बूढ़ी आंखें उदास हो आई थीं।

कुछ रुककर हरिशंकर बोले - बेटा तुम ठीक कह रहे हो। एक उम्र के बाद बूढ़े और बच्चों में कोई फर्क नहीं रह जाता। बाबूजी बात-बिना बात किस तरह रूठ जाया करते थे। उन्होंने एक जमाना देखा था। पूरा एक युग जिया था। बहुत-से सपने संजोए थे। सपने जब समय की कसौटी पर सहीं नहीं उतरते तो गहरे दुख का कारण बनते हैं। शायद उनकी निराशा या कहें कि हताशा का एक कारण यह भी था..। सुबह हॉकर अखबार डाल जाता तो सबसे पहले वे ही लपककर ले जाते। पहला पन्ना खोलते तो फिर उसी पर अटक जाते। फिर जब होश-सा आता तो बड़ी वितृष्णा के साथ आगे बढ़ा देते - लो, हरि, तुम पढ़ो।

आपने पढ़ लिया बाबूजी? मैं पूछता तो उसी उखड़े-उखड़े स्वर में कहते - इसमें है ही क्या पढ़ने के लिए। रोज-रोज सब एक-सा ही रहता है। हत्याओं के विवरण के अलावा और होता ही क्या है?

फिर बाद में तो उन्होंने पढ़ना भी छोड़ दिया था। एक दिन दीपू कह रहा था - दादीजी से दादाजी बड़ी गंभीरता से बातें कर रहे थे, मेरे आते ही एकाएक चुप हो गए थे। बाद में मैंने देखा - मेरी स्लेट पर उन्होंने कुछ जोड़-घटाने का हिसाब लिख रखा था - मई में इकतीस दिन। इकतीस को कभी वह दस से गुणा करते, कभी बारह से। इसी तरह जून के तीस दिनांे को भी उन्होंने गुणा किया हुआ था।

एक दिन मैं कुछ लिख रहा था। पास ही दीपू बाबूजी से बतिया रहा था - दादाजी ये आप क्या लिखते रहते हैं स्लेट पर.. हम बच्चों की तरह। पंडित जी की तरह आप भी जनम-कुंडली बनाते हैं क्या?

बाबूजी जैसे कहीं गहरे में खोए हुए थे। हां, बेटे, तुम ठीक कह रहे हो। मैं जनम-कुंडली ही बनाता रहता हूं। कभी तुम्हारी, कभी अपनी.. कभी देश की।

वह हंस पड़ा था - देश की भी कहीं जनम-कुंडली होती है? फिर आप कहेंगे - मकान की। घर की। गाय की। पेड़ की। कुछ रुककर फिर कुछ सोचता हुआ बोला था - हमारे पुरोहित जी देश की भी कुंडली बना सकते हैं क्या?

हां, बेटे, मैं वर्षो से उसी ज्योतिषी की तलाश में तो हूं। कभी मिले तो पूछूं- क्या यह सपना देखा था हमने? हमारा रामराज इसी रूप में आना था? आदमी को कहीं भी आज चैन क्यों नहीं है? फिर कोई जिए तो कैसे जिए इस माहौल में। कहीं कोई आस की लौ दीखती नहीं..। सब जगह कुहासा ही कुहासा है..।

सचमुच बाबूजी उस दिन बहुत भावुक हो आए थे। बहुत उदास।

कुछ क्षण सब चुप रहे। उस असह्य मौन को भंग करते हुए छोटे बेटे हरि प्रसन्न ने कहा - इस बुढ़ापे में बाबूजी में एक तरह की सनक-सी तो आ ही गई थी। गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। देखा था आपने। पड़ोस में लाला देवेंद्र पाल की बिटिया के विवाह में दहेज की बात उठी तो बाबूजी कैसे लाठी लेकर मारने दौड़े थे। ..अरे भाई, शादी उनके घर। बेटी उनकी, दामाद उनका - जो चाहें करें। तुम्हें क्या?

यही बात जब मैंने बाबूजी से कही तो कितना आगबबूला हो उठे थे। देखा तो था आपने - अरे, बहू-बेटियां तो सबकी होती हैं रे। लाला देवेन्दर की बेटी और मेरी बेटी में कुछ अंतर है, मुझे तो कभी लगा नहीं। सोच, वो दिन-दहाड़े दहेज की मांग करें और बारात लौटा ले जाने की धमकी दें, मेरा तो खून खौल जाता है, सुनकर ही। पता नहीं, तुम्हारी रंगों में पानी क्यों समा गया है? ..वे हांफने से लगे थे - यह मुलक अब जीने लायक नहीं लगता.. दुनिया कहां से कहां चली गई और हम दहेज में ही अटके पड़े हैं।

बाबूजी का चित्त शांत तो पहले भी कब था, पर यहां तक आते-आते तो उनसे बात करने में भी डर लगता था। पता नहीं, किस बात पर कब क्या कह दें। ..इधर कुछ दिनों से तो उन्होंने बोलना-चालना सब एक तरह से बंद कर दिया था। बहुत हुआ तो सांझ के समय दीपू या विकास को लेकर राजघाट चले जाते थे..। एक दिन अम्मा से कह रहे थे - बापू से बातें करके मन शांत हो जाता है।

पगला-से गए थे। एक तरह से। पास बैठे कोई आत्मीय कहते हैं - बुढ़ापे में ऐसा हो ही जाता है। हमारे दादाजी इसी तरह बड़बड़ाते थे अपने बुढ़ापे में.. और पागलपन के ऐसे ही दौर में अपनी सारी जायदाद अपने अनाथ धेवते के नाम पर करने पर तुले थे।

हरिशंकर अम्मा को समझाने लगते हैं तो वे और भी अधिक सिसक-सिसककर रोने लगती हैं।

सुबह समाचार-पत्रों में एक विज्ञापन छपा दीखता है :

खोए हुए की तलाश। अस्सी वर्ष के वृद्ध घर से विक्षिप्तावस्था में लापता हैं। ढूंढ़कर लाने वाले को इनाम। विज्ञापन के साथ एक व्यक्ति का फोटो भी छपा है। तलाश जारी है।


Sunday, February 20, 2011

पाठशाला

चिड़िया ने दिया क़ीमती सबक़

किसान ने एक दिन छोटी-सी चिड़िया पकड़ ली। वह इतनी छोटी थी कि किसान की एक मुट्ठी में दो चिड़ियां समा सकती थीं। किसान कहने लगा कि वह उसे पकाकर खा जाएगा। चिड़िया बोली, ‘कृपा करके मुझे छोड़ दो। वैसे भी मैं इतनी छोटी हूं कि तुम्हारे एक कौर के बराबर भी नहीं होऊंगी।’

किसान ने जवाब दिया, ‘लेकिन तुम्हारा मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। और हां, मैंने कहावत सुनी है कि कुछ नहीं से कुछ भी होना बेहतर है।’ उसकी बात सुनकर चिड़िया बोली, ‘अगर मैं तुम्हें ऐसा मोती देने का वादा करूं, जो शुतुरमुर्ग के अंडे से भी बड़ा हो, तो क्या तुम मुझे आÊाद कर दोगे?’ उसकी बात सुनकर किसान बहुत ख़ुश हो गया और तत्काल उसने मुट्ठी खोलकर उसे उड़ा दिया।
चिड़िया आÊाद होते ही कुछ दूर पर एक पेड़ की थोड़ी ऊंची डाल पर जा बैठी, जहां तक किसान का हाथ नहीं पहुंच पाता था। किसान ने उसे बैठा देखकर बड़ी बेसब्री से कहा, ‘जाओ, जल्दी जाओ, मेरे लिए वह मोती लेकर आओ।’ चिड़िया हंसकर बोली, ‘वह मोती तो मुझसे भी बड़ा है, मैं उसे कैसे ला सकती हूं?’ किसान ने ग़ुस्से और खीझ से कहा, ‘तुम्हें लाना ही पड़ेगा, तुमने वादा किया है।’
चिड़िया वहीं बैठी रही। उसने जवाब दिया, ‘मैंने तुमसे कोई वादा नहीं किया था। मैंने सिर्फ़ यही कहा था कि अगर मैं ऐसा वादा करूं, तो क्या तुम मुझे छोड़ दोगे। और इतना सुनते ही तुम लालच में अंधे हो गए थे। ’ उसकी बात सुनकर किसान हाथ मलने लगा। चिड़िया बोली, ‘लेकिन दुखी मत हो, मैंने आज तुम्हें वह पाठ पढ़ाया है, जो ऐसे हÊार मोतियों से Êयादा क़ीमती है। हमेशा कुछ भी करने से पहले सोच-विचार करो।’

भगवान से कैसे बात करें हम..

दादाजी बैठे-बैठे अख़बार पढ़ रहे थे। कमरे में उनकी पांच वर्षीय पोती भगवान के सामने हाथ जोड़े बैठी कुछ बुदबुदा रही थी। नन्ही पोती को इस तरह प्रार्थना करते देख दादाजी को सुखद आश्चर्य हुआ। सो, वे ध्यान से सुनने लगे कि पोती आख़िर भगवान से क्या कह रही है। लेकिन काफ़ी ध्यान लगाने पर भी उन्हें कुछ समझ में न आया।

उनकी पोती शब्द या वाक्य बोलने की बजाय क, ख, ग, घ, अ, आ, इ, ई, उ ऊ जैसे अक्षर दुहरा रही थी। उन्होंने पूछा, ‘बिटिया, तुम क्या कर रही हो?’ पोती बोली, ‘मैं प्रार्थना कर रही हूं दादाजी। मुझे सटीक शब्द नहीं सूझ रहे हैं, इसलिए मैं अक्षर बोल रही हूं। भगवान उन अक्षरों को चुनकर सटीक शब्द बना लेगा, क्योंकि वह जानता है कि मैं क्या चाहती हूं।’
कहीं, किसी और जगह, एक और दादाजी अपने पोते की प्रार्थना सुन रहे थे। यह पोता भी बहुत छोटा था। इतना छोटा कि उसके पास बुद्धि तो थी, पर स्वार्थ न था। वह भगवान की शक्ति के बारे में तो जानता था, पर यह नहीं जानता था कि भगवान से डरना चाहिए या नहीं।
दादा ने सुना, पोता कह रहा था, ‘हे भगवान, मेरे पापा की रक्षा करना और मेरी मम्मी की भी और मेरी बहन की और मेरे भाई की और मेरे दादा-दादी की भी रक्षा करना। तू मेरे सभी दोस्तों को अच्छे से रखना और पड़ोस वाले अंकल-आंटी को भी।
आया और उसके छोटू की देखभाल की जिम्मेदारी भी तेरी है। और हां, तुझे मेरे कुत्ते की भी अच्छी तरह देखभाल करनी है। और हां भगवान, ध्यान से अपनी भी देखभाल करते रहना। अगर तुझे कुछ हो गया, तो हम सब बहुत मुसीबत में फंस जाएंगे!’

भिखारी का धर्म-संकट

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज तो मेरी झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। वह कुछ दूर ही चला था कि अचानक सामने से उसे राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी ख़ुश हो गया।

उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारी ग़रीबी दूर हो जाएगी। जैसे ही राजा भिखारी के निकट आया, उसने अपना रथ रुकवाया। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले, अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे।
ख़ैर, भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला और जैसे-तैसे कर उसने जौ के दो दाने निकाले और राजा की चादर पर डाल दिए। राजा चला गया। भिखारी मन-मसोसकर आगे चल दिया। उस दिन उसे और दिनों से ज्यादा भीख मिली थी, फिर भी उसे ख़ुशी नहीं हो रही थी।
दरअसल, उसे राजा को दो दाने भीख देने का मलाल था। बहरहाल, शाम को घर आकर जब उसने झोली पलटी, तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसके झोले में दो दाने सोने के हो गए थे। वह समझ गया कि यह दान की महिमा के कारण हुआ था। बहरहाल, उसे बेहद पछतावा हुआ कि काश! राजा को और जौ दान करता।
सबक अवसर ऐसे ही लुके-छिपे ढंग से सामने आते हैं। समय रहते व्यक्ति उन्हें पहचान नहीं पाता और बाद में पछताता है।

बच्चे की बात में ख़ुशी का राज

एक बच्चे के स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे। उसे नाटक में हिस्सा लेने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन भूमिकाएं कम थीं और उन्हें निभाने के इच्छुक विद्यार्थी बहुत Êयादा थे। सो, शिक्षक ने बच्चों की अभिनय क्षमता परखने का निर्णय लिया। इस बच्चे की मां उसकी गहरी इच्छा के बारे में जानती थी, साथ ही डरती भी थी कि उसका चयन न हो पाएगा, तो कहीं उस नन्हे बच्चे का दिल ही न टूट जाए।

बहरहाल, वह दिन भी आ गया। सभी बच्चे अपने अभिभावकों के साथ पहुंचे थे। एक बंद हॉल में शिक्षक बच्चों से बारी-बारी संवाद बुलवा रहे थे। अभिभावक हॉल के बाहर बैठे परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
घंटे भर बाद दरवाजा खुला। कुछ बच्चे चहकते हुए और बाक़ी चेहरा लटकाए हुए, उदास-से बाहर आए। वह बच्च दौड़ता हुआ अपनी मां के पास आया। उसके चेहरे पर ख़ुशी और उत्साह के भाव थे। मां ने राहत की सांस ली। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ, अभिनय करने की बच्चे की इच्छा पूरी हो रही है।
वह परिणाम के बारे में पूछती, इतने में बच्च ख़ुद ही बोल पड़ा, ‘जानती हो मां, क्या हुआ?’ मां ने चेहरे पर अनजानेपन के भाव बनाए और उसी मासूमियत से बोली, ‘मैं क्या जानूं! तुम बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा।’
बच्च उसी उत्साह से बोला, ‘टीचर ने हम सभी से अभिनय कराया। मैं जो रोल चाहता था, वह तो किसी और बच्चे को मिल गया। लेकिन मां, जानती हो, मेरी भूमिका तो नाटक के किरदारों से भी बड़ी मजेदार है।’ मां को बड़ा आश्चर्य हुआ। बच्च बोला, ‘अब मैं ताली बजाने और साथियों का उत्साह बढ़ाने का काम करूंगा!’\

बदले के चक्कर में डूबी लुटिया

बहुत समय पहले की बात है। उन दिनों इंसान अकेला रहता था। उसके पास गाय-बैल, घोड़ा, कुत्ता जैसे जानवर नहीं थे। सभी पशु अलग-अलग रहते थे और उनका दर्जा इंसान से जरा भी कम नहीं था। इंसान और बाक़ी जानवर आपस में बात करते, एक-दूसरे से कभी दोस्ती कर लेते और कभी लड़ भी पड़ते। ऐसे ही एक बार बैल और घोड़े में झगड़ा हो गया। दोनों पहले अच्छे दोस्त थे और झगड़ा बहुत मामूली बात पर हुआ था, लेकिन दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे। बैल और घोड़ा इसी फ़िराक़ में रहते थे कि कैसे अगले का नुक़सान किया जा सके।
सो, एक दिन घोड़ा इंसान के पास पहुंच गया। उसे पता था कि इंसान के पास बहुत दिमाग़ है और उसे दोनों हाथों और पैरों का कई तरह से इस्तेमाल कर सकने में महारत हासिल है। बैल से दुश्मनी के चक्कर में वह आदमी के पास मदद मांगने पहुंच गया था।
इंसान ने बड़े ग़ौर से उसकी बातें सुनीं। लगे हाथ बैल की बुराई भी कर दी। इससे घोड़ा बड़ा ख़ुश हुआ। उसने इंसान का भरोसा जीतने के लिए बताया कि बैल के पास काम करने के लिए बहुत ऊर्जा है, वह खेती समेत कई कामों में उसका मददगार हो सकता है।
इंसान ने कहा, ‘मैं बैल को काबू में लेकर उससे ग़ुलामों की तरह काम करवाऊंगा, लेकिन इसके लिए मुझे ऐसे साथी की जरूरत है, जो तेजी से दौड़ सके और मुझे बिठाकर बैल के पीछे दौड़ लगा सके।’ घोड़ा बोला, ‘मैं हूं न, तुम मेरे ऊपर बैठ जाना।’ आदमी झट से उसके ऊपर बैठ गया और उसकी नाक में नकेल कस दी। फिर उसने बैल को भी काबू में कर लिया। तब से बैल और घोड़ा, दोनों इंसान के सेवक बन गए।

सेवा की मिली मेवा लेकिन..
एक गिलहरी शेर की सेवा में लगी थी। वह थी तो छोटी-सी, पर अपनी पूरी क्षमता से शेर के काम करती। हरदम लगी रहती। शेर भी उसकी सेवा से ख़ुश था। उसने गिलहरी को इनाम में दस बोरी अखरोट देने का वादा किया। गिलहरी बड़ी ख़ुश हुई। उसे लगा कि उसकी मेहनत सार्थक हो गई। वह सपने देखने लगी कि दस बोरी अखरोट मिलने के बाद उसे काम करने की Êारूरत नहीं रहेगी। उसके बाद तो उसका सारा जीवन सुख और आराम से गुÊारेगा। लेकिन आज का सच यह था कि शेर ने वादा किया था, उसने अखरोट भरी बोरियां दी नहीं थीं।

फिर भी आस पक्की थी, क्योंकि यह शेर का वादा था, जो पूरा होना ही था। सो, गिलहरी दूने जोश से उसकी सेवा में जुट गई। वह काम करते-करते अपने पुराने साथियों को देखती, जो एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकते रहते, कभी Êामीन पर उतर सरपट दौड़ पड़ते। गिलहरी को एक पल के लिए ख़ुद पर अफ़सोस होता, पर अगले ही पल उसके मन में आता कि ये लोग भले ही आज मौज-मस्ती कर रहे हैं, लेकिन जब मुझे अखरोटों के रूप में अपनी सेवा का पुरस्कार मिल जाएगा, मैं पूरी Êिांदगी मौज करूंगी।
इस तरह वह नन्ही-सी गिलहरी शेर की सेवा में जुटी रही। शेर कभी उससे ख़ुश हो जाता, कभी झिड़क भी देता। उसे एक अन्य जंगल में रहने वाले शेर की सेवा के लिए भी भेजा गया। हर मौक़े पर वह यही सोचती रही कि एक बार अखरोट मिल जाएं, बस! आख़िर गिलहरी को रिटायर कर दिया गया। और सचमुच, शेर ने उसे इनाम में दस बोरी अखरोट भी दिए। पर गिलहरी को ख़ुशी नहीं हुई। क्यों? क्योंकि उसके पूरे दांत झड़ चुके थे। अब अखरोट उसके किस काम के?

पाठशाला

डुबो न दे अति आत्मविश्वास

रसमपुर गांव में रहने वाले एक कुलीन ब्राह्मण परिवार ने अपने पूर्वजों की स्मृति में एक समारोह का आयोजन किया। समारोह समाप्त होने के बाद मेजबान परिवार के मुखिया ने घर आए रिश्तेदारों से अत्यंत संकोचपूर्वक कहा कि उसने उनके सम्मान में गाढ़ी मलाईदार खीर बनवाई थी, लेकिन अतिथियों की संख्या बढ़ जाने के कारण खीर कम हो गई है।

ऐसा कहते हुए उसने एक कटोरा भर खीर उनके सामने रखी और संकोचपूर्वक वहां से हट गया। मेहमानों ने देखा कि यह खीर तो केवल एक ही व्यक्ति भरपेट खा सकता है। उन्होंने आपस में एक प्रतियोगिता के आयोजन का विचार किया। राय बनी कि सभी मेहमान जमीन पर सांप का चित्र बनाएं और जो व्यक्ति सबसे पहले चित्र बनाए उसे पूरी खीर दे दी जाएगी। सारे लोग चित्र बनाने में जुट गए। उनमें से एक चित्रकला में निपुण था। अत: उसने शीघ्र ही सांप का सुंदर चित्र बना डाला। उसने देखा कि बाकी लोग तो चित्र की अभी शुरुआत ही कर रहे हैं। उसने सोचा कि जब तक ये लोग चित्र पूरा करते हैं, मैं जरा सांप के पैर बनाकर उसे और खूबसूरत बना दूं। उसने सांप के पैर बनाए। तब तक एक अन्य व्यक्ति ने भी सांप का चित्र बना लिया। दूसरे व्यक्ति ने खीर का कटोरा उठा लिया। इस पर निपुण चित्रकार ने आपत्ति करते हुए कहा कि उसने चित्र पहले ही बना लिया था, बाद में तो वह सिर्फ पैर बना रहा था, अत: खीर पर उसका हक बनता है।
विवाद गहराते देख दूसरे चित्रकार ने कहा कि चूंकि शर्त सांप का चित्र बनाने की थी इसलिए तुम हार गए, क्योंकि पैर वाला जीव सांप नहीं हो सकता। निपुण चित्रकार हाथ मलता रह गया।

 मन चंगा तो कठौती में गंगा
उत्कल ऋषि के आश्रम में सैकड़ों युवा साधु अध्ययन और ध्यान आदि के प्रशिक्षण में रत रहते थे। उनमें उज्ज्वल और प्रखर नामक दो साधुओं की छवि अलग थी। दोनों बेहद प्रतिभाशाली और योग्य थे। उनके चेहरे पर एक अलग तरह का तेज था। एक बार की बात है, दोनों कहीं जा रहे थे कि तभी अचानक जोर की बारिश आ गई।

कच्ची सड़क पर बारिश का पानी एकत्रित हो गया और वहां भारी कीचड़ हो गया। बीच सड़क पर बारिश से घिरे उज्ज्वल और प्रखर की निगाह कुछ दूर एक सुंदर युवती पर पड़ी। वह इस दुविधा में खड़ी थी कि अगर उसने कीचड़ को पार करने की कोशिश की तो उसके सुंदर वस्त्र खराब हो जाएंगे। उज्ज्वल युवती की मदद करने के इरादे से उसके पास पहुंचा और उसकी अनुमति लेकर उसने अपनी बांहों के सहारे से उसे सड़क पार करा दी। युवती ने दोनों साधुओं को धन्यवाद दिया। दोनों आगे निकल गए। प्रखर को यह अच्छा नहीं लगा। कई दिन बीत गए।
आखिर एक दिन प्रखर ने अपने मन की बात उज्‍जवल से कह डाली, ‘उज्ज्वल, उस दिन तुमने अच्छा नहीं किया था। हम ब्रह्मचारी साधु हैं। हमारे लिए स्त्रियों और खासकर युवतियों को देखना भी पाप है और तुमने उस दिन उस सुंदरी को बाहों में उठा लिया।’ प्रखर की आपत्ति पर उज्ज्वल ने विनम्रता से कहा, ‘भाई, स्त्री-पुरुष से पहले हम सभी इंसान हैं और जरूरतमंद की मदद करना हमारा सबसे बड़ा धर्म होना चाहिए। मैंने तो उस युवती को उसी समय सड़क किनारे उतार दिया था प्रखर, लेकिन लगता है कि तुम अब तक उसे अपने मन में उठाए हुए हो।’
सबक: सद्भावना या दुर्भावना हमारी हमारे मानस में होती है। बाहर की परिस्थितियों में नहीं। हमारा आचरण परिस्थिति के अनुरूप और सही है तो उसे लेकर दुर्भावना मन में नहीं लाना चाहिए।


नैसर्गिकता से खिलवाड़ नहीं

सुंदरपुर शहर में एक धनी सेठ रहते थे, जिनका नाम रूपचंद था। नाम के अनुरूप ही रूपचंद काफी खूबसूरत थे। उन्होंने दो विवाह किए थे। दो पत्नियों में से एक उनकी हमउम्र थीं जिनका नाम रूपा था। दूसरी पत्नी चंदा उनसे दस साल छोटी थी। दोनों ही पत्नियां पति को बहुत मानती थीं।

सेठ रूपचंद भी पूरी कोशिश करते थे कि व्यस्त कामकाज के बावजूद दोनों पत्नियों को पूरा समय दे सकें। वे उन पर पर्याप्त स्नेह रखते थे। उधर दोनों पत्नियों का भी पूरा जोर इस बात पर होता कि सेठ का खानपान और पहनावा आदि उनकी मर्जी के मुताबिक हो। सेठ का यश चारों ओर फैला हुआ था। उनका सभी बहुत सम्मान भी करते। एक दिन की बात है, कहीं बाहर निकलने से पहले सेठ अपने बालों को संवार रहे थे। अचानक उनकी नजर अपने सफेद बालों पर पड़ी। उस समय उनके साथ चंदा भी थी।
सेठ ने हंसकर कहा कि वह तो अब बूढ़ा हो चला है। छोटी पत्नी चंदा को भी चिंता होने लगी कि उसका पति बूढ़ा हो रहा है। पति के सामने वह बहुत छोटी दिखेगी। काफी सोच-विचार के बाद चंदा ने इसका उपाय खोजा। रात में जब पति सो रहा था तो चंदा ने सेठ के सिर से सफेद बाल चुन-चुनकर निकालने शुरू कर दिए ताकि वह जवान दिखाई दे। अगली रात दूसरी पत्नी रूपा ने जब पति के सिर से सफेद बाल गायब देखे तो उसे चिंता होने लगी कि वह कहीं पति से पहले वृद्घ न दिखने लगे। बस उसने पति के सिर से सारे काले बाल उखाड़ दिए। अगले दिन सेठ रूपचंद ने जब अपने सिर के सारे बाल गायब देखे तो उसकी हैरानी और दुख का ठिकाना नहीं रहा।
सबक अगर हम अपने आस-पास की किसी वस्तु या इंसान को पूरी तरह अपने हिसाब से ढालने लगेंगे तो उस की नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट ही करेंगे।

किताबी ज्ञान पर भारी अनुभव

रतनपुर गांव का नाम मशहूर था क्योंकि वहां प्रसिद्घ गणितज्ञ रामेश्वर रहा करते थे। दूर-दूर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने उनके पास आया करते थे। उनमें से चार प्रतिभाशाली शिष्यों पर उनका विशेष स्नेह था। उन चारों के गणित संबंधी ज्ञान की चर्चा दूर दूर तक थी। एक बार की बात है।

लगातार शिक्षा-दीक्षा की एकरसता दूर करने के विचार से चारों मित्र बाहर घूमने के लिए निकले ताकि जीवन में थोड़ा नई तरह का परिवर्तन आए। अभी उन्होंने कुछ ही दूरी तय की थी कि रास्ते में नदी आ गई। समस्या यह थी कि चारों में से एक को भी तैरना नहीं आता था और आसपास कोई नाव भी नहीं दिख रही थी।
उन्होंने आपस में राय-मशविरा किया और इस समस्या का हल भी गणित के जरिए निकालने की ठानी। उन्होंने पास ही पशु चरा रहे एक व्यक्ति से नदी की गहराई के बारे में पूछताछ की। पूछताछ के बाद चारों मित्र इस नतीजे पर पहुंचे कि चूंकि नदी दोनों किनारों पर बहुत उथली है और बीच धार में उसकी गहराई बहुत अधिक नहीं है इसलिए नदी की औसत गहराई चार फीट के करीब होनी चाहिए। उन्हें लगा कि किनारों पर पानी उनके घुटनों के नीचे रहेगा जबकि बीच में कुछ देर के लिए पानी उनके सर के ऊपर से निकलेगा उसके बाद फिर किनारा आ जाएगा। बस फिर क्या था। चारों मित्र आश्वस्त होकर नदी में उतर गए।
किनारे खड़ा चरवाहा उन्हें रोकता रहा लेकिन वे हंसते हुए उसकी अनदेखी कर पानी में घुस गए। जाहिर है नदी की गहराई औसत मान से नहीं मापी जा सकती। बस फिर क्या था, बीच धार की गहराई ने उन्हें डुबा दिया और वे असमय काल के गाल में समा गए।

किस वेश में मिल जाए भगवान...

एक छोटा बच्चा जूते के शोरूम के बाहर खड़ा डिस्प्ले में रखे जूतों को देर से निहार रहा था। वहां कई डिजाइनों में झक सफ़ेद से लेकर अलग-अलग रंगों के ढेर सारे जूते रखे थे। वह कभी किसी जूते को देखता, कुछ सोचता, कुछ बुदबुदाता और कभी दूसरे जूतों को।

अचानक एक महिला उसके पास पहुंची। उसकी उम्र 40-45 वर्ष की रही होगी। चेहरे-मोहरे और पहनावे से वह संभ्रांत परिवार की लग रही थी। बच्चे को ध्यान ही नहीं था कि कोई उसके पास खड़ा है, लेकिन जब महिला ने उसके सिर पर हाथ फेरा, तो उसने चौंककर देखा। महिला ने पूछा, ‘तुम इतने ग़ौर से क्या देख रहे हो?’ बच्चे के मन में जो था, उसने साफ़-साफ़ बता दिया, ‘मैं भगवान को मना रहा था कि काश! वह एक जोड़ी जूते मुझे दिला दे।’
उसकी बात सुनकर महिला मुस्कराई और उसका हाथ पकड़कर शोरूम के भीतर ले गई। वहां उसने बच्चे के माप के 10 जोड़ी मोजे निकालने का आदेश दिया। बच्चे को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। फिर उस महिला ने दुकानदार से पानी भरी बाल्टी और तौलिया मांगा। उसके बाद वह बच्चे को लेकर दुकान के पीछे ले गई और साबुन-पानी से उसके पैर अच्छी तरह साफ़ किए। फिर उन्हें तौलिए से सुखाया।
इसके बाद उसने अपने हाथों से बच्चे को मोजे पहनाए और बाक़ी मोजे उसके झोले में डाल दिए। फिर वह उसे लेकर डिस्प्ले में गई और पूछा कि वह किस जूते के लिए कह रहा था। बच्चे ने जिस जूते की ओर इशारा किया, उसने निकलवाकर ख़ुद उसे पहनाया और उसके चेहरे की ओर देखने लगी। हैरान बच्चे ने उससे पूछा, ‘क्या आप भगवान की पत्नी हैं?’

गधा काम छोड़ जाता क्यों नहीं

एक गधा अपने मालिक से बहुत परेशान था। इतना परेशान कि उसका मन करता, तुरंत रस्सी तुड़ाकर भाग जाए।

पर पता नहीं क्यों, गधा भागता नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि गधा कामचोर हो। वह मेहनत से काम करता और जब तक कि थककर चूर नहीं हो जाता, सुस्ताने के लिए बैठता नहीं था। कितना भी बोझ लाद दिया जाए, उफ तक नहीं करता था। लेकिन गधे का मालिक कभी न तो उसके सिर पर हाथ फेरता, न कभी उसकी तारीफ़ करता। ऐसा भी नहीं था कि गधे को बहुत अच्छा दाना-पानी या सुख-सुविधाएं मिल रही हों। उसे बस सूखा चारा और पानी मिल जाता था। हद हो गई, तो किसी बड़े त्योहार के मौक़े पर घर की जूठन मिल जाती।
फिर भी गधा संतुष्ट था। हालांकि उसकी परेशानी में कोई कमी न थी। पास-पड़ोस के गधे उस पर दया करते। वे कम काम करते थे और उन्हें दाना-पानी भी अच्छा मिलता था। वे अक्सर पीड़ित गधे को बताते थे कि उनके मालिक उसकी तारीफ़ करते हैं और कहते हैं कि यदि ऐसा गधा उनके पास हो, तो वे उसे कितने प्यार से रखेंगे। इतना ही नहीं, वे तो साथी गधे से कहते भी थे कि वह उनके साथ भाग चले, तो दूर, किसी न किसी जगह उसे काम पर लगवा ही देंगे, जहां निश्चित तौर पर वर्तमान से अच्छी परिस्थितियां होंगी।
लेकिन गधा कम खाकर, ज्यादा काम कर भी अपने मालिक की डांट-फटकार और मार सह रहा था। आख़िर एक दिन बहुत पूछने पर गधे ने अपने साथी को बताया- ‘मेरे मालिक की एक बहुत सुंदर बेटी है। और मालिक जब भी उससे नाराज होता है, कहता है तेरी शादी तो मैं किसी दिन गधे से कर दूंगा। बस, उसी दिन की आस में काम कर रहा हूं।’
सबक़हम सब के भीतर भी एक गधा होता है, जो असंतुष्टियों के बावजूद अपने वर्तमान काम में जुटा रहता है और असंभव की कल्पना में ख़ुश रहता है। सोचिए, क्या भविष्य में पुरस्कार की आस वर्तमान ख़ुशी से बड़ी है?

आपके पैर दौड़ते हैं या मन..?

उस बच्ची को पैरों में तकलीफ़ थी। डॉक्टर कहते थे कि उसके पैर में एक मांसपेशी जन्म से ही नहीं थी। इसलिए उसे चलने के लिए थोड़ा ज्यादा प्रयास करना पड़ता था। बावजूद इसके उसके उत्साह में कोई कमी नहीं थी। न तो वह अकेली रहती थी और न ही उसे चुपचाप बैठे रहना पसंद था। एक दिन वह स्कूल से वापस आकर अपने पिता को बताने लगी कि उस दिन स्कूल में ढेर सारी खेलकूद प्रतियोगिताएं हुईं और उसने उनमें से कई स्पर्धाओं में भाग लिया।

पिता अपनी बेटी की लाचारी के बारे में जानता था। इसलिए जब बेटी दिनभर की गतिविधियों के बारे में बता रही थी, तब पिता का दिमाग़ यह सोच रहा था कि कैसे अपनी बेटी को प्रोत्साहित किया जाए और यह बताया जाए कि छोटी-छोटी असफलताओं से जीवन में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उसका अनुमान था कि पैरों से थोड़ी लाचार बेटी ने दौड़-भाग वाली स्पर्धाओं में हिस्सा तो लिया होगा, पर वह सब में हार ही गई होगी।
लेकिन बेटी ने जब बताया कि दो प्रतियोगिताओं में उसे जीत मिली है, तो पिता की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा। फिर जब बेटी ने बताया कि उसे जीत इसलिए मिली, क्योंकि पैरों में कमजोरी होने के कारण उसे विशेष लाभ मिला था, तो पिता सोचने लगा कि उसे बाक़ी बच्चों से पहले दौड़ शुरू करने की छूट दे दी गई हो या उसके लिए दूरी कम कर दी गई हो।
लेकिन एक बार फिर उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब बेटी ने बताया कि उसे क्या सौगात मिली थी। बेटी बोली, ‘मुझे छूट नहीं मिली थी। दरअसल, मेरे साथ अच्छी बात यह थी कि मुझे चलने के लिए ज्यादा कोशिश करनी पड़ती है, इसलिए मैंने दौड़ने के लिए और ज्यादा कोशिश की..और मैं जीत गई!’

Tuesday, September 21, 2010

एक नजरिया

ऊँचाई
 उदघाट्न समारोह में बहुत से रंगबिंरगेखुबसूरतगोलमटोल गुब्बारों के बीच एक कालाबदसूरत गुब्बारा भी थाजिसकी सभी हँसी उड़ा रहे थे।
‘‘
देखोकितना बदसूरत है,’’ गोरे चिट्टे गुब्ब्बारे ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘‘देखते ही उल्टी आती है।’’
‘‘
अबेमरियल!’’ सेब जैसा लाल गुब्बारा बोला, ‘‘तू तो दो कदम में ही टें बाल जाएगाफूट यहाँ से!’’
‘‘
भाइयों! ज़रा इसकी शक्ल तो देखो,’’ हरेभरे गुब्बारे ने हँसते हुए कहा, ‘‘पैदाइशी भुक्खड़ लगता है।’’ सब हँसने लगेपर बदसूरत गुब्बारा कुछ नहीं बोला। उसे पता था ऊँचा उठना उसकी रंगत पर नहीं बल्कि उसके भीतर क्या हैइस पर निर्भर है।
जब गुब्बारे छोड़े गए तो कालाबदसूरत गुब्बारा सबसे आगे था




मरुस्थल के वासी
गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें। मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहां से मिलेगा

हद
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ । साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है। तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है ? मजिस्टेट ने पूछा । मैंने क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी लगाकर बैठा था। हीर के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नजर नहीं आई



बैल
वह फूट फूटकर रोने लगा ।
इसके दिमाग में गोबर भरा है गोबर” -विमला ने मिक्की की किताब को मेज पर पटका और पति को सु्नाते हुए पिनपिनाई , ‘मुझसे और अधिक सिर नहीं खपाया जाता इसके।मिसेज आनन्द का बंटी भी तो पांच साल का ही है, उस दिन किटी पार्टी में उन्होंने सबके सामने उससे कुछ क्वेश्चन पूछे---वह ऐसे फटाफट अंग्रेजी बोला कि हम सब देखती रह गईं। एक अपने बच्चे हैं---’’
मिक्की! इधर आओ।’’ वह किसी अपराधी की तरह अपने पिता के पास आ खड़ा हुआ ।हाउ इज़ फूड गुड फार अस? जवाब दो बोलो।
इट मेक्स अस स्ट्रांग, एक्टिव एंड हैल्पस अस टू----टू---टूऊ
क्या टू - टू लगा रखी है! एक बार में क्यों नहीं बोलते?” उसने आँखें निकालीं, “एंड हैल्प्स अस टू ग्रो।
इट मेक्स असटांग---वह रुआँसा हो गया।
असटांग !! यह क्या होता है, बोलो----स्ट्रोंग’----‘ स्ट्रोंग’----तुम्हारा ध्यान किधर रहता है---हँय ?” उसने मिक्की के कान उमेठ दिए।
इट मेक्स स्टांग---उसकी आंखों से आँसू छलक पड़े।
यू-एस---असकहाँ गया । खा गए ! तड़ाक से एक थप्पड़ उसके गालों पर जड़ता हुआ वह दहाड़ा, “ मैं आज तुम्हें छोड़ूँगा नहीं---
फूड स्टांग अस---
क्या ? वह मिक्की को बालों से झिंझोड़ते हुए चीखा ।
पापा ! मारो नहीं---अभी बताता हूँ---बताता हूँ --- स्ट्रोंग ---फूड---अस---इट---हाऊ---इज़---वह फूट फूटकर रोने

ठंडी रजाई
कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।
ठीक किया।वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।
बहुत ठंड है!वह बड़बड़ाया।
मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!वह करवट बदलते हुए बोला ।
नींद का तो पता ही नहीं है!पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है । जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
कैसी बात करते हो?”
आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।
हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
मैं सोच रहा था---मेरा मतलब यह था कि---हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।
तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ। वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था । वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई । उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी


पाठशाला

मौत के सामने भी अक्ल दौड़ती रही

जंगल घना था। पेड़-झाड़ इतने थे कि राह नहीं सूझती थी। ऐसे में एक बेचारी लोमड़ी के रास्ते में अचानक शेर आ गया। अब लोमड़ी भागे भी तो किधर। उसे डर तो लग रहा था, पर वह थी पक्की लोमड़ी। सो, तेजी से दिमाग़ के घोड़े दौड़ाने लगी। उधर शेर निश्चिंत था कि शिकार कहीं भागकर नहीं जा सकता। 
वह लोमड़ी पर झपटने की तैयारी कर ही रहा था कि अचानक लोमड़ी ने डपटकर पूछा, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मेरी राह में आने की? क्या तुम्हें उस भगवान का डर नहीं, जिसने मुझे भेजा है?’ शेर ने ऐसे किसी सवाल के बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। एक पल के लिए तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया। फिर जब उसके भीतर का शेर जागा, तो उसने हिम्मत करके सवाल किया, ‘तुम ऐसा कैसे कह सकती हो? क्या सबूत है कि तुम्हें ईश्वर ने भेजा है?’
लोमड़ी तो इस सवाल के लिए तैयार ही खड़ी थी। उसने कहा, ‘इसमें कौन-सी बड़ी बात। तुम मेरे साथ जंगल में घूमो और ख़ुद ही देख लेना। तुम बस मेरे पीछे-पीछे चलो और अपनी आंखों से देख-जान लो कि जंगल के बाक़ी प्राणी मेरी कितनी इज्जत करते हैं। यहां तक कि वे मेरे रास्ते में भी नहीं आते।
सो, शेर लोमड़ी के पीछे-पीछे चलने लगा। और वाक़ई, उसने देखा कि राह में आने वाले छोटे-मोटे जानवर तो काफ़ी दूर से ही दुम दबाकर भाग जाते थे और बड़े जानवर भी उसके रास्ते में आने की बजाय राह बदलकर निकल जाते थे। Êाहिर है, बाक़ी जानवर लोमड़ी के पीछे चल रहे शेर को देखकर डर रहे थे। पर इस उपाय से लोमड़ी की जान बच गई।

सबक : संकट के समय भी दिमाग़ ठंडा होना होना चाहिए और अक्ल के घोड़े दौड़ते रहने चाहिए, क्योंकि अक्सर ऐसे मौक़ों पर सिर्फ़ अक्लमंदी ही होती है, जो हमें उबार सकती है। बुद्धि ही असली मित्र है

जो डरता है वह डरता ही रहता है

एक चूहा था। उसे बिल्ली से बड़ा डर लगता था। हालांकि यह स्वाभाविक है कि चूहे को बिल्ली से डर लगे, पर इस चूहे को कुछ ज्यादा ही डर लगता था। अपने सुरक्षित बिल में सोते हुए भी सपने में उसे बिल्ली नजर आती। हल्की-सी आहट से उसे बिल्ली के आने का अंदेशा होने लगता। सीधी-सी बात यह कि बिल्ली से भयभीत चूहा चौबीसों घंटे घुट-घुटकर जीता था।
ऐसे में एक दिन एक बड़े जादूगर से उसकी मुलाक़ात हो गई। फिर तो चूहे के भाग ही खुल गए। जादूगर को उस पर दया आ गई, तो उसने उसे चूहे से बिल्ली बना दिया। बिल्ली बना चूहा उस समय तो बड़ा ख़ुश हुआ, पर कुछ दिनों बाद फिर जादूगर के पास पहुंच गया, यह शिकायत लेकर कि कुत्ता उसे बहुत परेशान करता है।
जादूगर ने उसे कुत्ता बना दिया। कुछ दिन तो ठीक रहा, फिर कुत्ते के रूप में भी उसे परेशानी शुरू हो गई। अब उसे शेर-चीतों का बड़ा डर रहता। इस दफ़ा जादूगर ने सोचा कि पूरा इलाज कर दिया जाए, सो उसने कुत्ते का रूप पा चुके चूहे को शेर ही बना दिया। जादूगर ने साचा कि शेर जंगल का राजा है, सबसे शक्तिशाली प्राणी है, इसलिए उसे किसी से डर नहीं लगेगा। 
लेकिन नहीं। शेर बनकर भी चूहा कांपता ही रहा। अब उसे किसी और जंगली जीव से डरने की जरूरत नहीं थी, पर बेचारे को शिकारियों से बड़ा डर लगता। आख़िर वह एक बार फिर जादूगर के पास पहुंच गया। लेकिन इस बार जादूगर ने उसे शिकारी नहीं बनाया। उसने उसे चूहा ही बना दिया। जादूगर ने कहा- चूंकि तेरा दिल ही चूहे का है, इसलिए तू हमेशा डरेगा ही। 
सबक : डर कहीं बाहर नहीं होता, वह हमारे भीतर ही होता है। स्वार्थ की अधिकता और आत्म-विश्वास की कमी से हम डरते हैं। इसलिए अपने डर को जीतना है, तो पहले ख़ुद को जीतना पड़ेगा।

भगवान खिलाए कौन-कौन खाए

एक प्रसिद्ध आदमी था। वह ईमानदारी और मेहनत के साथ समाजसेवा के कार्यो के लिए भी जाना जाता था। एक दिन बाजार में एक भिखारी ने उसके आगे हाथ पसारा। समाजसेवी को न जाने क्या सूझा कि उसने भिखारी से कहा, ‘चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें भीख से कुछ ज्यादा देना चाहता हूं।भिखारी को लेकर वह अपने एक परिचित दुकानदार के पास पहुंचा। समाजसेवी ने कहा कि वह उसे कोई काम दे दे। 
चूंकि लोग उस पर भरोसा करते थे, इसलिए दुकानदार ने भी उसके बताए आदमी, यानी भिखारी को कुछ सामान देकर आसपास के गांवों में बेचने का काम दे दिया। कुछ दिनों बाद जब वह समाजसेवी फिर से बाजार से गुजर रहा था, तो उसने भिखारी को हाथ फैलाए हुए पाया। जब उसने काम के बारे में पूछा, तो भिखारी ने बताया, ‘मैं सामान लेकर गांव-गांव घूमता था। एक बार मैंने देखा कि एक अंधा बाज पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। 
मुझे उत्सुकता हुई कि आख़िर वह अपने लिए खाने का इंतजाम कैसे करता होगा! तभी मैंने देखा कि एक और बाज चोंच में खाना भरकर लाया और उसे खिलाने लगा। तभी मेरे दिमाग़ में आया कि भगवान सबकी परवाह करता है। अगर उसने अंधे बाज के लिए भोजन का प्रबंध किया, तो वह मेरे लिए भी जरूर करेगा। इसलिए मैंने काम छोड़ दिया।उसका क़िस्सा सुनकर समाजसेवी ने इतना ही कहा, ‘यह सही है कि ऊपरवाला कमजोरों का भी ध्यान रखता है। लेकिन वह तुम्हें सबल बनने का विकल्प भी देता है। फिर तुमने अंधा बाज बनने की बजाय खाना खिलाने वाला पक्षी बनने का विकल्प क्यों नहीं चुना?’
सबक : भगवान की आड़ में अपनी अकर्मण्यता और आलस को सही न ठहराएं। जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म का महत्व बता दिया, तो बस भगवान भरोसे ही बैठे रहना मूर्खता ही है