Monday, May 2, 2011

फुरसतनामा

नरक यात्रा का दुख

दोबार अपने राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता सज्जन कुमार अभी कुछ महीने पहले केंद्र में कैबिनेट स्तर के मंत्री बने थे। हर तरफ से खजाने का मुंह उनकी तरफ खुल गया था। उनके स्विस बैंकों के लेखों में दनादन माया बढ़ती जा रही थी। राजधानी के गलियारों में उनका रौब-रुतबा बढ़ गया था। जहां उनके इतने दोस्त बने, वहां दुश्मनों की भी कमी नहीं थी। उन्हें एक तरफ करके खुद आगे आने के लिए कई लोग लालायित थे।
चाल चलने वाले आखिरकार कामयाब हो ही गए। सज्जन कुमार पर कई जानलेवा हमले हुए, मगर हर बार वह चमत्कारिक रूप से बच निकलते। बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाती। मौत उनके आसपास मंडराती रही।
एक दिन नेताजी अपने हल्के से दल-बल सहित लौट रहे थे कि कुछ आत्मघाती लोगों की कारें उनके काफिलें से भिड़ गईं। उसी सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनका शरीर तो खैर देश की अमानत था, सो हर तरफ शोक मनाया जा रहा था। नेता जी की आत्मा को देवदूतों ने देवनगरी के बाहर के गेट पर ला पटका था।
द्वार पर एक सीनियर देव अधिकारी ने नेताजी का स्वागत करते हुए कहा, ‘सर, माफ कीजिएगा, धरती पर आपके रुतबे के अनुरूप यहां आपका स्वागत तो नहीं किया जा सकेगा। मगर आप जैसे वीआईपी लोगों के लिए हमारे इस लोक के संविधान में एक विशेष प्रावधान है। आप जैसे समाजसेवियों को मृत्यु के बाद स्वर्गलोक में आने पर एक विकल्प दिया जाता है।’

नेताजी की बांछें खिल गईं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘जल्दी बताएं श्रीमान, मैं तीन दिनों से भूखा-प्यासा हूं। जल्दी से स्वर्गलोग के द्वार खुलवाएं। नृत्य और मदिरा का इंतजाम करवाएं और बताएं कि यहां मुझे क्या-क्या विशेषाधिकार मिलेंगे।’
देव अधिकारी ने विनम्रता से कहा, ‘सर, आप तो धरती पर साक्षात राजा जैसा जीवन बिताकर आए हैं। यहां भी आपको राजसी सत्कार दिया जाएगा। आपको आपकी मर्जी से ही स्वर्ग या नरक की अलॉटमेंट दी जाएगी। यह आपकी खुशी पर निर्भर करता है कि आपको क्या पसंद है। आपको एक रात नरक में गुजारनी है और फिर अगला एक दिन स्वर्ग में। फिर उसके बाद आप बता देना कि पक्के तौर पर आप कहां रहना चाहेंगे।’

नेताजी तपाक से बोले, ‘सच में क्या ऐसा मुमकिन है। मैंने तो सुना है कि कर्मो के अनुसार ही जन्नत या दोजख के दरवाजे खुलते हैं, मगर जनाब आपकी बातों ने तो मुझे निहाल कर दिया। अगर आप मेरी मानें तो मैंने अभी ही फैसला ले लिया है। मुझे स्वर्ग में भेज दें।’
अधिकारी ने थोड़ा सख्त लहजे में कहा, ‘आई एक सॉरी, सर। यूं हड़बड़ी ठीक नहीं और फिर यहां के कानून का पालन करना जरूरी है। आपको पहले एक दिन नरक में रहना होगा और फिर अगले दिन स्वर्ग में रात बितानी होगी। उसके बाद आपको सोचने-विचारने का समय दिया जाएगा और फिर आपकी मर्जी के मुताबिक आपका निवास स्थान आवंटित कर दिया जाएगा। यह औपचारिकता निभाहनी बहुत जरूरी है, क्योंकि चित्रगुप्त महोदय एक बार निर्णय हो जाने के बाद फिर किसी की शिकायत पर गौर नहीं करते। देखने में आया है कि लोगों के मन बहुत विचलित होते हैं। बहुधा लोग स्वर्ग चुन लेने के बाद अर्जी लगा देते हैं कि उन्हें नरक में स्थान चाहिए। ऐसे प्रार्थना पत्र नष्ट कर दिए जाते हैं, उन पर कोई गौर नहीं किया जाता। मैं नहीं चाहता कि आपको अपने फैसले पर क्षोभ हो।’

देवदूत ने थोड़ी सांस लेकर आगे कहा, ‘सर आपको हैरानी हो रही है, मगर यह सत्य है। धरती पर पता नहीं किन खब्ती लोगों ने अफवाहें फैला दी हैं कि अच्छे कर्मो के कारण स्वर्ग मिलता है और बुरे कामों के कारण नरक की यातना भोगनी पड़ती है। ऐसी बात नहीं है सर। नरक और स्वर्ग व्यक्ति की रुचि, मानसिकता और चुनाव पर आधारित है। कोई जबरदस्ती वाली बात नहीं है यहां। सच मानें तो यहां असली जनतंत्र है। बस एक बात है कि एक बार चुन लेने के बाद आदमी अपना विकल्प नहीं बदल सकता।’
नेताजी अजीब-सी मनस्थिति में पहुंच गए थे। ऐसा कुछ उनके लिए समझ से बिल्कुल परे था। धरती के हर कानून को वह अपने या अपने लोगों के पक्ष में कर लेते थे, मगर यहां उनके साथ क्या घटने वाला है, यह सोचकर उनका कलेजा कांप उठा। हर तरफ अनिश्चय व भय की स्थिति थी।
सज्जन कुमार को स्वर्ग या नरक में से एक चुनने का अधिकार मिल तो गया, मगर वह इस लोक की वास्तविक रणनति समझ नहीं पा रहे थे। अगर किसी को उसकी मर्जी के मुताबिक जगह मिल जाएगी तो फिर स्वर्ग और नरक को रसातल की संज्ञा दी गई है। काफी देर नीचे उतरने के बाद नरक का गेट उनके सामने था। नरक का स्वागती गेट देखकर उनका मन खिल उठा। वह सोचने लगे कि अगर नरक ऐसा है तो स्वर्ग तो न जाने कितना आकर्षक और लुभावना होगा।
सामने का दृश्य देखकर नेताजी गदगद हो गए। एक बड़ा-सा हरा-भरा गोल्फ का मैदान था। थोड़ी ही दूरी पर एक सुंदर क्लब हाउस था। उसके पास खड़े नेताजी के कई जिगरी दोस्त नजर आ रहे थे, जिनके साथ नेता जी ने राजनीति की दलदल में गैर-कानूनी ढंग से करोड़ों रुपए कमाए थे। हरेक व्यक्ति बेहद खुश नजर आ रहा था। आसपास चुलबुली शोख और बिंदास महिलाएं भी इतरा रही थीं। सारा कुछ उनकी जवानी के दिनों के समान ही माहौल था, जब वह क्लबों में रात-रात भर मौज-मस्ती करते रहते थे।
उन सभी लोगों ने बड़ी गर्मजोशी से नेताजी को गले लगाया व उनकी शान में कसीदे कहे। फिर वे सब लोग मिलकर आम आदमी के खर्च पर की गई ऐयाशियों के किस्से सुना-सुनाकर देर तक कहकहे लगाते रहे। क्लब में कई प्रकार के मनोरंजक खेल हुए, डांस किए गए, लजीज व्यंजन और उम्दा शराब और कबाब परोसा गया।

 

नेताजी तो यह सब पाकर मस्त ही हो गए। कहां तो उन्हें अपनी मौत का गम खाए जा रहा था। अभी-अभी तो दिल्ली की सुनहरी गद्दी पर काबिज हुए थे। अभी तो विदेशों में ऐशो-इशरत का रास्ता खुला था और तभी मौत ने आ घेरा था। मगर नरक में आज का यह दिलकश मंजर देखकर सज्जन कुमार तृप्त हो गए। असमय मरने का सारा गम जाता रहा। वहां शैतान भी आया, जो दिखने में बहुत फिराकदिल, खुशमिजाज और दोस्ताना था। उसने भी मस्त मन से नृत्य किया और कई प्रकार के लतीफे सुनाए।

इतने सब में पता ही नहीं कब एक दिन गुजर गया। देवदूत नेताजी को लेने आ पहुंचा। सभी लोगों ने नेताजी को भरे गले से गुड बाय कहा। देवदूत नेताजी को फिर उसी लिफ़्ट में लेकर चला।

काफी देर तक बहुत ऊपर जाने के बाद स्वर्ग के मुख्यद्वार के सामने देवदूत ने नेताजी को स्वर्ग में एक दिन के लिए जाने को कहा। स्वर्ग यूं तो बहुत ही बढ़िया जगह थी, मगर नेताजी के स्वभाव और रुचि के अनुकूल वहां कुछ भी नहीं था। सबसे ज्यादा खलने वाली बात तो यह थी कि कोई जाना-पहचाना व्यक्ति वहां नहीं था। सज्जन कुमार आज तक भीड़ में घिरे रहते तभी उन्हें अपना जीवन सार्थक लगता था। स्वर्ग के अनजान माहौल में एक पल में ही उनका दम घुटने लगा था।

स्वर्ग में एक अपूर्व नीरस शांति थी। नेताजी को सारा मामला बहुत बोर लगा। बादलों पर इतराते प्रसन्न मुद्रा में ध्यान पर बैठे लोगों को देख-देखकर बहुत ही कष्टपूर्ण ढंग से नेताजी का वह एक दिन बीता।

देवदूत के साथ नेताजी वापिस मुख्य कार्यालय में लौटे। एक फॉर्म पर उन्हें अपना विकल्प चुनने के लिए कहा गया। नेताजी ने कूटनीति से यह कहते हुए नरक में जाने की इच्छा व्यक्त की, ‘सोचकर तो यही चला था कि स्वर्ग में रहकर ऐश करूंगा, मगर नरक में मेरे साथी भी हैं और मस्ती का माहौल भी है। स्वर्ग वैसे तो बहुत अच्छी जगह है, मगर मुझे लगता है कि मैं नरक में ही रहकर खुश रह सकूंगा। कृपया मुझे नरक में स्थान दे दिया जाए।’ सज्जन कुमार की अर्जी मंजूर कर ली गई। नरक मिलने की खुशी में वह झूम उठे।
उसी लिफ्ट से देवदूत नेताजी को नरक के द्वार तक छोड़ गया। जब नेताजी नरक से गेट से अंदर दाखिल हुए तो वहां का सारा नजारा बहुत बदला हुआ था। कहीं कोई गोल्फ का मैदान नहीं था, न ही क्लब और न वे रंगीनियां। हर तरफ उजाड़ था, गंदगी थी, लोग गंदगी को बोरों में भर रहे थे और ऊपर से कचरा व गंदगी गिर रही थी। लोगों ने गंदे-फटे कपड़े पहने हुए थे।
तभी शैतान ने आकर नेताजी के कंधे पर हाथ रखा। नेताजी ने बौखलाकर कहा, ‘माफ करना जनाब, मुझे समझ नहीं आ रहा है कि माजरा क्या है। कल जब मैं यहां आया था तब यहां गोल्फ क्लब था, हमने खूब मस्ती की थी, शराब और कबाब की पार्टी थी, मगर आज यहां सब कुछ दरिद्रतापूर्ण है। मेरे सारे दोस्तों ने फटे कपड़े पहने हैं और वे कितने घृणित लग रहे हैं। बात क्या है?’
नरक के मुखिया शैतान ने अट्टहास करते हुए कहा, ‘बंधु! धरती पर तुम भी तो यही सब करते रहते हो। चुनाव नजदीक आने पर जनता को कैसे उल्लू बनाते हो। यहां नरक में लोगों की भीड़ जुटाने के लिए हमें भी यह सब करना पड़ता है। कल हम लोग नरक के पक्ष में तुम्हारा वोट लेने के लिए एक प्रकार का चुनाव प्रचार कर रहे थे। उसी का नतीजा है कि तुम जैसे मशहूर नेता ने हमें सेवा का मौका दिया। कल का सारा तामझाम तुम्हें रिझाने के लिए था।’
नेता सज्जन कुमार को पहली बार महसूस हुआ कि धरती पर जब वे चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को सब्जबाग दिखाते थे और चुनावों के बाद उन्हें छलते थे, तब जनता को भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगता होगा।


एक बेमेल इंसान

एक ऐसा देश था, जिसके सारे निवासी चोर थे।

रात में नकली चाभियों के गुच्छे और लालटेन के साथ सभी लोग अपने-अपने घर से निकलते और किसी पड़ोसी के घर में चोरी कर लेते। सुबह जब माल-मत्ते के साथ वे वापस आते तो पाते कि उनका भी घर लुट चुका है।

तो इस तरह हर शख्स खुशी-खुशी एक-दूसरे के साथ रह रहा था। किसी का कोई नुकसान नहीं होता था क्योंकि हर इंसान दूसरे के घर चोरी करता था, और वह दूसरा किसी तीसरे के घर और यह सिलसिला चलता रहता था उस आखिरी शख्स तक जो कि पहले इंसान के घर सेंध मारता था।

उस देश के व्यापार में अनिवार्य रूप से खरीदने और बेचने वाले दोनों ही पक्षों की धोखाधड़ी शामिल होती थी। सरकार अपराधियों का एक संगठन थी, जो अपने नागरिकों से हड़पने में लगी रहती थी। और नागरिकों की रुचि केवल इसी बात में रहती थी कि कैसे सरकार को चूना लगाया जाए। इस तरह जिंदगी सहज गति से चल रही थी, न तो कोई अमीर था न तो कोई गरीब।

एक दिन, यह तो हमें नहीं पता कि कैसे, कुछ ऐसा हुआ कि उस जगह पर एक ईमानदार आदमी रहने के लिए आ गया। रात में बोरा और लालटेन लेकर बाहर निकलने की बजाए वह घर में ही रुका रहा और सिगरेट पीते हुए उपन्यास पढ़ता रहा।

चोर आए और बत्ती जलती देखकर अंदर नहीं घुसे।

ऐसा कुछ दिन चलता रहा : फिर उन्होंने उसे खुशी-खुशी यह समझाया कि भले ही वह बिना कुछ किए ही गुजर करना चाहता हो, लेकिन दूसरों को कुछ करने से रोकने का कोई तुक नहीं है। उसके हर रात घर पर बिताने का मतलब यह है कि अगले दिन किसी एक परिवार के पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा।

ईमानदार आदमी बमुश्किल ही इस तर्क पर कोई ऐतराज कर सकता था। वह उन्हीं की तरह शाम को बाहर निकलने और फिर अगली सुबह घर वापस आने के लिए राजी हो गया। लेकिन वह चोरी नहीं करता था। वह ईमानदार था, और इसके लिए आप उसका कुछ कर भी नहीं सकते थे। वह पुल तक जाता और नीचे पानी को बहता हुआ देखा करता। सुबह जब वह घर लौटता तो पाता कि वह लुट चुका है।

हफ्ते भर के भीतर ईमानदार आदमी ने पाया कि उसके पास एक भी पैसा नहीं बचा है। उसके पास खाने के लिए कुछ नहीं है और उसका घर भी खाली हो चुका है। लेकिन यह कोई खास समस्या न थी, क्योंकि यह तो उसी की गलती थी। असल समस्या तो यह थी कि उसके इस बर्ताव से बाकी सारी चीजें गड़बड़ा गई थीं। क्योंकि उसने दूसरों को तो अपना सारा माल-मत्ता चुरा लेने दिया था, जबकि उसने किसी का कुछ नहीं चुराया था। इसलिए हमेशा कोई न कोई ऐसा शख्स होता था, जो सुबह घर लौटने पर पाता कि उसका घर सुरक्षित है : वह घर जिसमें उस ईमानदार आदमी को चोरी करनी चाहिए थी।

कुछ समय के बाद उन लोगों ने, जिनका घर सुरक्षित रह गया था, अपने आपको दूसरों के मुकाबले कुछ अमीर पाया और उन्हें यह लगा कि अब उन्हें चोरी करने की जरूरत नहीं रह गई है।

मामले की गंभीरता और अधिक कुछ यूं बढ़ी कि जो लोग ईमानदार आदमी के घर में चोरी करने आते, उसे हमेशा खाली ही पाते। इस तरह वे गरीब हो गए।

इस बीच उन लोगों को, जो अमीर हो गए थे, ईमानदार आदमी की ही तरह रात में पुल पर जाने और नीचे बहते हुए पानी को देखने की आदत पड़ गई। इससे गड़बड़ी और बढ़ गई क्योंकि इसका मतलब यही था कि बहुत-से और लोग अमीर हो गए तथा बहुत-से और लोग गरीब भी हो गए।

अब अमीरों को लगा कि अगर वे हर रात पुल पर जाना जारी रखेंगे तो वे जल्दी ही गरीब हो जाएंगे। तो उन लोगों को सूझा : ‘चलो कुछ गरीबों को पैसे पर रख लिया जाए जो हमारे लिए चोरियां किया करें’। उन लोगों ने समझौते किए, तनख्वाहें और कमीशन तय किया : अब भी थे तो वे चोर ही, इसलिए अब भी उन्होंने एक-दूसरे को ठगने की कोशिश की। लेकिन, जैसा कि होता है, अमीर और भी अमीर होते गए जबकि गरीब और भी गरीब।

कुछ अमीर लोग इतने अमीर हो गए कि उन्हें अमीर बने रहने के लिए चोरी करने या दूसरों से कराने की जरूरत नहीं रह गई। लेकिन अगर वे चुराना बंद कर देते तो वे गरीब हो जाते क्योंकि गरीब तो उनसे चुराते ही रहते थे। इसलिए उन लोगों ने गरीबों में भी सबसे गरीब को अपनी जायदाद को दूसरे गरीबों से बचाने के लिए पैसे देकर रखना शुरू कर दिया, और इसका मतलब था पुलिस बल और कैदखानों की स्थापना।

तो हुआ यह कि ईमानदार आदमी के प्रगट होने के कुछ ही साल बाद लोगों ने चोरी करने या लुट जाने के बारे में बातें करना बंद कर दिया। अब वे सिर्फ अमीर और गरीब की बात किया करते थे; लेकिन अब भी थे वे चोर ही।

इकलौता ईमानदार आदमी वही शुरुआत वाला ही था, और वह थोड़े समय बाद ही भूख से मर गया था।











खोए हुए

आखिर वे अपना घर छोड़कर क्यों जाएंगे कहीं? यह घर उनका है। इसकी एक-एक ईंट स्वयं उन्होंने अपने हाथों से रखी है। तिनका-तिनका जोड़कर जो घर बनाते हैं, वे अपना घर छोड़कर कहीं जा सकते हैं?

फिर क्या बात हुई होगी?

घर में कोई कलह?

कोई अशांति?

कोई मतभेद?

फिर कोई कारण तो रहा ही होगा। नहीं तो क्या हवा में अंतरध्यान हो गए? जमीन लील गई उन्हें? वे एकाएक कहां लापता हो गए?

पहले कभी कहते थे - यह घर अब छोटा पड़ गया है लीला। जब बनाया था, तब कितना बड़ा लगता था। लगता था -कैसे रहेंगे इत्ते बड़े घर में..?

इस पर वे कहतीं - मैं घर में झाडू-बुहारी ही लगाती रहूंगी दिन भर या बच्चों की देख-रेख भी करूंगी?

तब हंसी-हंसी में उन्होंने भी उसी लहजे से कहा था - तुम्हारी इजाजत हो तो इसका भी इंतजाम हो जाएगा।

उनका शरारत भरा इशारा समझकर तब वह कितना बिफरी थीं, कितना?

वृद्धा पत्नी के मन में न जाने आज क्या-क्या आ रहा था? एक कोने में बैठी वे चुपचाप रो रही थीं। छोटे-छोटे बच्चों की समझ में नहीं आ पा रहा था कि इतनी बड़ी होकर भी दादी बच्चों की तरह क्यों रो रही हैं। निरंतर रोए जा रही हैं।

दादाजी हर रोज सुबह मुझे अपने साथ घुमाने ले जाते थे। कभी-कभी वे मुझसे रेस लगा लिया करते और अक्सर हार जाते थे। नन्हा साहिल कहता मैं ताली पीटता हुआ हंसता तो मेरे साथ-साथ मेरी तरह वे भी हंसने लगते थे। अरे शैतान। तू बड़ा पाजी है। मुझसे ज्यादा चलने लगा है न अब।

वे कहते तो मैं समझ न पाता कि दादा जी दूसरों को जिताने के लिए क्यों स्वयं हार स्वीकार कर लेते थे।

पास ही खड़ा भगत बोला - एक दिन मैंने रूठकर पूछा, दादाजी, आपने मेरा नाम ऐसा क्यों रखा? लोग तो न जाने कैसे-कैसे सुंदर नाम रख रहे हैं - एक दम मॉडर्न - प्रियांक, प्रस्तुत, प्रतुल। आपने सदियों पुराना नाम छांटा - भगत सिंह। बतलाइए, यह भी कोई नाम है?

दादाजी मेरी बातें सुनकर एकाएक सन्न-से रह गए। उनकी समझ में शायद भली-भांति नहीं आ पा रहा था कि मैं यह क्या कह रहा हूं। इसलिए कुछ सोचते हुए बोले - बेटे, तू अभी नहीं, कभी बड़ा हो जाएगा तो समझेगा..।

बहुत दिनों बाद जब एक बार मौसाजी की उपस्थिति में फिर बात छिड़ी तो बड़े उदास मन से बोले - हरविलास, यह ठीक कह रहा था। मुझे इसका नाम भगत सिंह और इससे बड़े का चंद्रशेखर नहीं रखना चाहिए था। ये बिचारे इस काबिल कहां। नाम का भी तो बोझ होता है न। उतना बड़ा बोझ उठाने की सामथ्र्य इनके कमजोर कंधों में कहां?

कहते-कहते दादाजी की बूढ़ी आंखें उदास हो आई थीं।

कुछ रुककर हरिशंकर बोले - बेटा तुम ठीक कह रहे हो। एक उम्र के बाद बूढ़े और बच्चों में कोई फर्क नहीं रह जाता। बाबूजी बात-बिना बात किस तरह रूठ जाया करते थे। उन्होंने एक जमाना देखा था। पूरा एक युग जिया था। बहुत-से सपने संजोए थे। सपने जब समय की कसौटी पर सहीं नहीं उतरते तो गहरे दुख का कारण बनते हैं। शायद उनकी निराशा या कहें कि हताशा का एक कारण यह भी था..। सुबह हॉकर अखबार डाल जाता तो सबसे पहले वे ही लपककर ले जाते। पहला पन्ना खोलते तो फिर उसी पर अटक जाते। फिर जब होश-सा आता तो बड़ी वितृष्णा के साथ आगे बढ़ा देते - लो, हरि, तुम पढ़ो।

आपने पढ़ लिया बाबूजी? मैं पूछता तो उसी उखड़े-उखड़े स्वर में कहते - इसमें है ही क्या पढ़ने के लिए। रोज-रोज सब एक-सा ही रहता है। हत्याओं के विवरण के अलावा और होता ही क्या है?

फिर बाद में तो उन्होंने पढ़ना भी छोड़ दिया था। एक दिन दीपू कह रहा था - दादीजी से दादाजी बड़ी गंभीरता से बातें कर रहे थे, मेरे आते ही एकाएक चुप हो गए थे। बाद में मैंने देखा - मेरी स्लेट पर उन्होंने कुछ जोड़-घटाने का हिसाब लिख रखा था - मई में इकतीस दिन। इकतीस को कभी वह दस से गुणा करते, कभी बारह से। इसी तरह जून के तीस दिनांे को भी उन्होंने गुणा किया हुआ था।

एक दिन मैं कुछ लिख रहा था। पास ही दीपू बाबूजी से बतिया रहा था - दादाजी ये आप क्या लिखते रहते हैं स्लेट पर.. हम बच्चों की तरह। पंडित जी की तरह आप भी जनम-कुंडली बनाते हैं क्या?

बाबूजी जैसे कहीं गहरे में खोए हुए थे। हां, बेटे, तुम ठीक कह रहे हो। मैं जनम-कुंडली ही बनाता रहता हूं। कभी तुम्हारी, कभी अपनी.. कभी देश की।

वह हंस पड़ा था - देश की भी कहीं जनम-कुंडली होती है? फिर आप कहेंगे - मकान की। घर की। गाय की। पेड़ की। कुछ रुककर फिर कुछ सोचता हुआ बोला था - हमारे पुरोहित जी देश की भी कुंडली बना सकते हैं क्या?

हां, बेटे, मैं वर्षो से उसी ज्योतिषी की तलाश में तो हूं। कभी मिले तो पूछूं- क्या यह सपना देखा था हमने? हमारा रामराज इसी रूप में आना था? आदमी को कहीं भी आज चैन क्यों नहीं है? फिर कोई जिए तो कैसे जिए इस माहौल में। कहीं कोई आस की लौ दीखती नहीं..। सब जगह कुहासा ही कुहासा है..।

सचमुच बाबूजी उस दिन बहुत भावुक हो आए थे। बहुत उदास।

कुछ क्षण सब चुप रहे। उस असह्य मौन को भंग करते हुए छोटे बेटे हरि प्रसन्न ने कहा - इस बुढ़ापे में बाबूजी में एक तरह की सनक-सी तो आ ही गई थी। गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। देखा था आपने। पड़ोस में लाला देवेंद्र पाल की बिटिया के विवाह में दहेज की बात उठी तो बाबूजी कैसे लाठी लेकर मारने दौड़े थे। ..अरे भाई, शादी उनके घर। बेटी उनकी, दामाद उनका - जो चाहें करें। तुम्हें क्या?

यही बात जब मैंने बाबूजी से कही तो कितना आगबबूला हो उठे थे। देखा तो था आपने - अरे, बहू-बेटियां तो सबकी होती हैं रे। लाला देवेन्दर की बेटी और मेरी बेटी में कुछ अंतर है, मुझे तो कभी लगा नहीं। सोच, वो दिन-दहाड़े दहेज की मांग करें और बारात लौटा ले जाने की धमकी दें, मेरा तो खून खौल जाता है, सुनकर ही। पता नहीं, तुम्हारी रंगों में पानी क्यों समा गया है? ..वे हांफने से लगे थे - यह मुलक अब जीने लायक नहीं लगता.. दुनिया कहां से कहां चली गई और हम दहेज में ही अटके पड़े हैं।

बाबूजी का चित्त शांत तो पहले भी कब था, पर यहां तक आते-आते तो उनसे बात करने में भी डर लगता था। पता नहीं, किस बात पर कब क्या कह दें। ..इधर कुछ दिनों से तो उन्होंने बोलना-चालना सब एक तरह से बंद कर दिया था। बहुत हुआ तो सांझ के समय दीपू या विकास को लेकर राजघाट चले जाते थे..। एक दिन अम्मा से कह रहे थे - बापू से बातें करके मन शांत हो जाता है।

पगला-से गए थे। एक तरह से। पास बैठे कोई आत्मीय कहते हैं - बुढ़ापे में ऐसा हो ही जाता है। हमारे दादाजी इसी तरह बड़बड़ाते थे अपने बुढ़ापे में.. और पागलपन के ऐसे ही दौर में अपनी सारी जायदाद अपने अनाथ धेवते के नाम पर करने पर तुले थे।

हरिशंकर अम्मा को समझाने लगते हैं तो वे और भी अधिक सिसक-सिसककर रोने लगती हैं।

सुबह समाचार-पत्रों में एक विज्ञापन छपा दीखता है :

खोए हुए की तलाश। अस्सी वर्ष के वृद्ध घर से विक्षिप्तावस्था में लापता हैं। ढूंढ़कर लाने वाले को इनाम। विज्ञापन के साथ एक व्यक्ति का फोटो भी छपा है। तलाश जारी है।


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